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तुम राग-द्वेष से रहित होकर परमानन्दमय हो जाओगे ।
भगवान् के दर्शन करना सम्यग्दर्शन का कारण माना जाता । साधक जब भगवान् का गुणानुवाद करते हैं अथवा दर्शन करते हैं, तब उनके परिणामों में विशुद्धता आती है। उससे पाप प्रकृतियाँ बदल कर पुण्यरूप हो जाती हैं। अतः पाप का फल न मिलकर पुण्य का फल मिलता है अथवा यदि पाप तीव्र हो तो कम होकर उदय में आता है । फिर भी, साधक का दृष्टिकोण तो वीतरागता की प्राप्ति का, रागद्वेष के नाश का अथवा भेद - विज्ञान का ही रहना चाहिये, पुण्यबन्ध तो स्वतः ही हो जाता है। जैसे किसान अनाज के लिए खेती करता है, घास-फूस तो साथ में अपने आप हो जाता है। लेकिन यदि वह घास-फूस के लिये खेती करे, तब उसके अनाज तो होगा ही नहीं, घास-फूस होना भी कठिन है। वैसे ही वीतरागता और भेदविज्ञान के लिये जो भगवान् के दर्शनादि करेगा, उसके मोक्षमार्ग के साथ पुण्यबन्ध तो हो ही जायेगा । भगवान् का दर्शन पूजन तो वीतरागता का ही साधन है । अतः दर्शन - स्तुति, पूजा - भक्ति करने वाले व्यक्ति की दृष्टि आत्मतत्त्व की शुद्धता की तरफ ही रहना चाहिये। अगर भगवान् के दर्शन, पूजन आदि भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिये किये जाते हैं तो वे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के कारण माने जाते हैं। आत्मदर्शन के लिये जिनदर्शन जरूरी है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने 'प्रवचनसार' ग्रंथ में लिखा है
जो जाणादि अरहंतं, दव्वत गुणत्त पज्जयत्तेहिं । सो जाणादि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्य लयं । ।
जो अरहंत भगवान् को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से यथार्थ जानता है, वह अपनी शुद्ध आत्मा को जानता है और उसका दर्शनमोह नियम से क्षय को प्राप्त होता है। अतएव अर्हन्त भगवान् की भक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए प्रधान करण है। जिनेन्द्र भगवान् के गुणों का चिंतवन करने से जीव को अपनी आत्मा के गुणों का भान होता है और भेदविज्ञान होकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। गृहस्थ का उपयोग चंचल होता है, उसे स्थिर करने के लिए वह अष्ट द्रव्यों का आलम्बन लेकर भगवान् की पूजा करता है और भावना भाता है कि हे भगवन्। आपने वीतरागता प्राप्त की, किन्तु मैं कषायों में पड़ा हूँ। मैं
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