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दुष्ट कर्मों का क्षय बहुत शीघ्रता से आरंभ हो जाता है। कल्याणमंदिर स्तोत्र में कहा है
हृद्वर्तिनि त्वयि विभो! शिथिली-भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः ।
सद्यो भुजङ्गमचया इव मध्यभागम
भ्यागते वन शिखण्डिनि चन्दनस्य ।।81 ।। हे प्रभो! आपके हृदय में विराजमान होने पर जीव के अत्यंत सुदृढ़ कर्मों के बन्धन उसी प्रकार शिथिलता को प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार मयूर के आने पर चंदन वृक्ष के मध्यभाग में लिपटे हुए सर्यों के बंधन तत्काल ढीले हो जाते हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है
___अव्याबाधमचिन्त्य सारमतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतं ।
सौख्यं त्वच्चरणारविन्द युगलं स्तुत्यैव संप्राप्यते । 161 ||
भगवन्! सम्पूर्ण बाधाओं से विमुक्त अचिन्त्य रूप, अतुल, अनुपम तथा अविनाशी सुख की प्राप्ति आपके चरणारविंदों की स्तुतिद्वारा ही होती
आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति का प्रत्यक्ष फल स्वयं अपने जीवन में अनुभव किया था। एक बार उनके नेत्रों की ज्योति चली गई थी, उस समय उन्होंने शांतिनाथ भगवान् की स्तुतिरूप 'शान्त्यष्टक' की रचना कर भक्ति की थी
'कारुण्यान्मम भक्तिकस्य विभो! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।' भगवन्! करुणा करके मुझ भक्त की दृष्टि को निर्मल कर दीजिए। तत्काल कर्मों का तीव्र उदय मंद हो गया और नेत्रों में ज्योति आ गई। पूज्यपाद स्वामी ने बाल्यकाल में ही दिगंबर मुद्रा धारण कर संघनायक आचार्य का पद प्राप्त किया था। वे सदा हृदय में यही अध्यात्म भावना प्रदीप्त रखते थे- मयाहमेव उपास्यः (समाधिशतक 31) मेरे द्वारा मेरी
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