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जिसका त्याग कर दिया, फिर उसका विकल्प भी छूट जाना चाहिये । त्याग करने के बाद उस त्याग का गुरूर भी अंदर नहीं रखना चाहिए।
एक मुनिराज अपने प्रवचन में बार-बार कह रहे थे कि मैंने लाखों की सम्पत्ति पर लात मार दी। दूसरे मुनिराज पास में बैठे थे। जब उन्होंने यही बात उनके मुख से बार-बार सुनी तो वे बोले-'महाराज जी ! लगता है अभी आपकी लात अच्छे से नहीं लगी, नहीं तो छोड़ने के बाद उसका ख्याल भी नहीं आना चाहिये । त्याग करने के बाद भी यदि अंदर से राग बना रहा तो त्याग से कोई लाभ नहीं ।
एक बार आचार्य शान्तिसागर जी मुनिराज जंगल के रास्ते से जा रहे थे । एक सन्यासी उनसे आग्रह करता है, महाराज! मेरी झोपड़ी में आपके चरण पड़ जायें तो मेरी झोपड़ी पवित्र हो जायेगी, आप मेरी झोपड़ी पर अवश्य चलें। मुनिराज उसकी झोपड़ी में ठहर गये। थोड़ी देर पश्चात मुनिराज ने विहार किया, तो सन्यासी भी साथ हो गया। सन्यासी बड़ा प्रसन्न था कि मुनिराज के साथ चल रहा हूँ। रास्ते में उसने पूछामहाराज! आपको हमारी झोपड़ी कैसी लगी? महाराज ने कहा- तुमने घर-परिवार छोड़ दिया, किन्तु एक झोपड़ी बना ली, आखिर क्या किया? मोह का परिवर्तन ही किया और कुछ नहीं । उस सन्यासी को लगा कि महाराज सही कह रहे हैं। वह वापिस आया और झोपड़ी में आग लगा दी। झोपड़ी को जलाकर वह मुनिराज के पास पहुँचा और बोला, महाराज! न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। इसलिये मैंने झोपड़ी जला दी । पर महाराज! यह तो बतला दो कि वह झोपड़ी कैसी थी ?
महाराज ने कहा- हे सन्यासी ! बाहर की झोपड़ी तो जल गई, किन्तु अंदर की नहीं। अंतरंग में अभी भी झोपड़ी बनी हुई है अर्थात् उसके प्रति मोह बना हुआ है। बाहरी त्याग के साथ अंतरंग में आसक्ति नहीं होनी चाहिये। अंतरंग में विरक्ति नहीं और बाहर से घर छोड़ दिया, फिर भी
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