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जिसमें नहीं चूता, उस निज चेतनगृह को छोड़ अन्यत्र संसार की इस बरसात में कहाँ घूमूं? अतः इससे बचने के लिए चेतनरूपी घर में रहकर सुखी होओ और त्याग धर्म का पालन करो।
परिग्रह के समान भार अन्य नहीं है। जितने भी दुःख, दुर्ध्यान, क्लेश, बैर, शोक, भय, अपमान हैं, वे सभी परिग्रह के इच्छुक के होते हैं। जैसे-जैसे परिग्रह से परिणाम भिन्न होने लगते हैं, परिग्रह में आसक्ति कम होने लगती है, वैसे-वैसे ही दुःख कम होने लगते हैं। समस्त दुःख तथा समस्त पापों की उत्पत्ति का स्थान यह परिग्रह ही है। जिन्होंने इस परिग्रह को त्याग दिया, वे त्यागी पुरुष ही वास्तव में सुखी हैं और भविष्य में अनन्तसख के धारी बनेंगे।
एक नगर का राजा मर गया। मंत्रियों ने सोचा कि अब किसे राजा बनाया जाये? सभी ने तय कर लिया कि सुबह के समय अपना राज-फाटक खुलेगा, तो जो व्यक्ति फाटक पर बैठा हुआ मिलेगा, उसको ही राजा बनायेंगे। फाटक खला, तो वहाँ मिले एक साध महाराज। वे लोग उस साधु का हाथ पकड़कर ले गये, बोले-तुम्हें राजा बनना है। ....... अरे! नहीं, नहीं। हम राजा नहीं बनेंगें। ............. तुम्हें राजा बनना ही पड़ेगा। उतारो यह लंगोटी और ये राज्याभूषण पहनो। साधु कहता है कि अच्छा, अगर हमें राजा बनाते हो तो हम राजा बन जायेंगे, पर हमसे कोई बात न पूछना, सब काम-काज आज से आप लोग ही चलाना। ............. हाँहाँ, यह तो मंत्रियों का काम है, आपसे पूछने की क्या जरूरत है? हम लोग सब काम चला लेंगे। उसने अपनी लंगोटी एक छोटे-से संदूक में रख दी और राजवस्त्र पहिन लिये। दो चार वर्ष गुजर गये। एक बार शत्रु ने चढ़ाई कर दी। मंत्रियों ने पूछा- राजन्! अब क्या करना चाहिए? शत्रु एकदम चढ़ आये हैं। अब हम लोग क्या करें? साधु बोला- अच्छा हमारी पेटी उठा दो। सब राज्याभूषण उतारकर लंगोटी पहिन ली और कहा
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