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छूट जायें, फिर कभी बंधन में न आ सके, ऐसी बात किसी के बनने में निमित्त पड़े अर्थात् ज्ञानदान दे, शास्त्रदान दे, तो इस दान की महिमा को कौन बता सकता है ? जो सदा के लिए संकट से छुटा दे, उसकी महिमा कौन कह सकता है? औषधिदान और अभयदान भी आहारदान की तरह प्रयोजनभूत हैं।
__यों श्रावक तो परिग्रह का परिमाण करके और पाए हुए समागम से यों परोपकार में वितरण करके धर्म की ओर अपनी दृष्टि बढ़ायें। यह है उनका शक्तितस्त्याग और साधु संत बाह्य तथा अभ्यंतर समस्त परिग्रहों को छोड़कर अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप की भावना में लगें, यही है साधुओं का शक्तितस्त्याग। ज्ञानीपुरुष इस शक्तितस्त्याग की भावना करता है और यदि कोई विधि से विपरीत त्याग का ढोंग करे तो वहाँ विडम्बना ही होती है। __एक पुरुष था, जाड़े के दिन थे। जाड़े से ठिठुरती हुई एक बुढ़िया को देखकर जो वह रजाई ओढे था वह दे दी। और आगे चला तो एक खेत में किसान की झोपड़ी बनी थी, सो जाड़े के मारे उस झोपड़ी को नोच-नोचकर तापने लगा। वह किसान मालिक आया और पूछा कि तुम कौन हो? सो वह बोला कि हम हैं दानी के बाप । अभी जाड़े से ठिठुरती हई बढिया को देखकर उसे मैंने अपनी रजाई ओढने को दे दी। उस किसान ने वहाँ पर उसकी खूब मरम्मत की। अरे! वहाँ तो त्याग किया
और यहाँ उस किसान की झोपड़ी उजाड़ते हैं। तो त्याग भी विधि सहित हो जो बराबर चल सके और जिससे हम अपनी ओर आ सकें। सत्यस्वरूप त्यागवृत्ति के स्रोत त्यागमूर्ति निजतत्त्व की भावना करने वाले सम्यग्दृष्टि के जगत के जीवों पर करुणा का भाव होने से तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है।
ये मकान, दुकान आदि बाह्य पदार्थ तेरे कुछ भी नहीं हैं। जहाँ से
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