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मान्यता, निर्मल यश की विख्यातता, बुद्धि की उज्ज्वलता, न्यायमार्ग में प्रवर्तना, वचन की मिष्ठता इत्यादि उत्तम सामग्री का पाना है, वह कभी धर्म से प्रेम किया होगा, धर्मात्माओं की सेवा की होगी, धर्म तथा धर्मात्माओं की प्रशंसा की होगी, उसका फल है। ___कल्पवृक्ष, चिंतामणि रत्न सभी धर्मात्मा के दरवाजे पर खड़े समझो। धर्म के फल की महिमा कोई कोटि जिह्वाओं द्वारा भी कहने में समर्थ नहीं हो सकता है। प्राणी को जितने भी सुख प्राप्त होते हैं, सब धर्म का ही फल
एक बालक मेले में अपने पिता की अंगुली पकड़कर घूम रहा था। मेले में दुकानों व अन्य सभी वस्तुओं को देखकर वह अत्यंत आनन्दित व खुश हो रहा था। अचानक पिता की अंगुली छूट गई। बालक पूरे मेले में घबराया हुआ रोता हुआ घूमता रहा। यद्यपि मेले में वे ही वस्तुएँ अब भी विद्यमान थीं जो पहले थीं, जिन्हें देखकर वह बालक पहले प्रसन्न हो रहा था, पर अब पिता की अंगुली छूटने मात्र से वह दुःखी हो रहा था। वे वस्तुएँ भी उसे प्रसन्न नहीं कर पा रही थीं। इसी प्रकार सब वैभवादि होते हुये भी यदि धर्म का आश्रय छूट गया, तो कोई सुखी नहीं रह सकता। उन वैभवादि में कोई सुख नजर नहीं आयेगा। जो वैभव पहले धर्म का अवलम्बन रहने से सुख का कारण बना हुआ था, वही दुःख का कारण बन जायेगा। जितने भी लौकिक व पारलौकिक सुख प्राप्त होते हैं, उनका कारण धर्म ही है।
ऐसे धर्म के फल को जो तीनलोक में उत्कृष्ट जानता है, उसके संवेग भावना होती है। धर्मसहित साधर्मी जीवों को देखकर आनन्द उत्पन्न होना, धर्म की कथनी में आनन्दमय होना तथा संसार, शरीर व भोगों से विरक्त हो जाना संवेग भावना है। संवेग को आत्मा का हितरूप समझकर निरन्तर इसकी भावना भावो।
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