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पढ़-लिखकर लौटकर घर न आये, तो हम अपनी कोख को सार्थक समझेंगे। जब वे बच्चे को झूले में झुलाती थीं, तब कहती थीं. शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि । संसार माया परिवर्जतोऽसि ।।
अर्थात् हे पुत्र! तू शुद्ध है, निरंजन है, संसार की ओर से तू सो जा । यह है माँ की उत्कृष्ट भावना ।
यदि हम वास्तविक सुख-शान्ति चाहते हैं, तो इतना संकल्प करे लें कि जहाँ तक हो सकेगा वहाँ तक शीलव्रत का पालन करेंगे । व्रत धारण करना नरपर्याय का सार है और समस्त व्रतों का सार शीलव्रत में है । संस्कृत में एक श्लोक आता है
अंकस्थाने भवेच्छीलं, शून्याकार व्रतादिकम् ।
अंकस्थाने पुनर्नष्टे, सर्वशून्यं व्रतादिकम् ।।
शून्य किसी भी अंक को दशगुणा कर देता है, परन्तु अंक के बिना शून्य का कोई महत्व नहीं होता। इसी प्रकार शीलव्रत के बिना अन्यव्रत अंकरहित शून्य के समान ही हैं । किन्तु शीलसंयुक्त होते ही कई गुणे महत्व को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे ही शील की प्रशंसा करते हुये लिखा हैशीलेन हि त्रयो लोकाः, शक्या जेतुं न संशयः । न हि किंचिद्साध्यं त्रैलोके, शीलवतां भवेत्।।
शील के द्वारा तीनलोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है, इसमें कोई संशय नहीं। शीलवानों के लिये संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है । जिसने अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया, उसका मनोबल जागृत हो जाता है। वह अपने मन व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
राजा का एक हाथी था, जिसे राजा बहुत प्रेम किया करता था। सारी प्रजा का भी वह प्रियपात्र था। उसकी प्रियपात्रता का कारण यह था कि उसमें अनेक गुण थे। वह बुद्धिमान एवं स्वामीभक्त था । अपने जीवन में
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