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2. पूजामद – ऐश्वर्य पाकर उसका मद कैसे किया जा सकता है? यह ऐश्वर्य तो अपनी आत्मा का स्वरूप भुलाने, बहुत आरम्भ, राग-द्वेष आदि में प्रवृत्ति कराकर चतुर्गति में परिभ्रमण कराने का कारण है। निर्ग्रन्थपना तीनलोक में ध्याने योग्य है, पूज्य है। यह ऐश्वर्य क्षणभंगुर है। बड़े-बड़े इन्द्र-अहमिन्द्रों का ऐश्वर्य भी पतन सहित है। बलभद्र, नारायण का भी ऐश्वर्य क्षणमात्र में नष्ट हो गया, अन्य जीवों का तो कितना-सा ऐश्वर्य है? ऐसा जानकर यदि दो दिन के लिये ऐश्वर्य पाया है तो दुःखित जीवों के उपकार में लगाओ, विनयवान् होकर दान दो। अपना परमात्म स्वरूप ऐश्वर्य जानकर इस कर्मकृत ऐश्वर्य से विरक्त होना ही योग्य है। 3. कुलमद- पिता के वंश को 'कुल' कहते हैं। ऊँच-नीच कुल भी अनंतबार प्राप्त हुआ है। संसार में जाति का, कुल का मद कैसे किया जा सकता है? स्वर्ग के महान ऋषिधारी देव मरकर एकेन्द्रिय में आकर उत्पन्न हो जाते हैं। श्वान आदि निंद्य तिर्यंचों में उत्पन्न हो जाते हैं तथा उत्तम कुल के धारी होकर भी चांडाल आदि में उत्पन्न हो जाते हैं। हे आत्मन्! तुम्हारा जाति/कुल तो सिद्धों समान है। ऐसा जानकर कभी भी कुल का मद नहीं करना चाहिये। 4. जातिमद – सम्यग्दृष्टि के ऐसा सच्चा विचार होता है-हे आत्मन्! यह उच्च जाति है, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। यह तो कर्म का परिणमन है। परकृत है, विनाशशील है, कर्माधीन है। माता के वंश को 'जाति' कहते हैं। संसार में अनेक बार अनेक जातियाँ पाई हैं। यह जीव अनेक बार चांडाली, भीलनी, म्लेच्छनी, चमारिन, धोबिन, नाईन, वैश्या, दासी आदि मनुष्यनी के गर्भ में अनन्त बार उत्पन्न हुआ है। सूकरी, कूकरी, गर्दभी, स्यालनी इत्यादि तिर्यंचनी के गर्भ में अनन्त बार नीच जाति पाता है। इसी प्रकार अनन्तबार उच्च जाति भी पायी जाती है, तो भी संसार–परिभ्रमण ही करता रहा। इसलिये जाति का मद नहीं करना चाहिये।
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