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________________ एकापि समर्थेयं जिनभक्ति दुर्गतिं निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं, दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ।।8।। जिनेन्द्र प्रभु की एक अकेली भक्ति दुर्गति का निवारण करने में समर्थ, पुण्य से पूरित करने वाली तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने वाली है। जो कर्म बिना फल दिये निर्जरित नहीं होते, ऐसे निधत्ति और निकाचित रूप बंधे हुए कर्म भी जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति के प्रसाद से नष्ट हो जाते हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला ग्रन्थ में कहा है "जिणबिम्बदंसणेण णिधत्ति णिकाचितकम्मखय दंसणादो" अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करने से अनेक जन्मों के संचित निधत्ति और निकाचित कर्म भी क्षय हो जाते हैं। पंचपरमेष्ठी की भक्ति से ही मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है। आप्त परीक्षा में आचार्य समन्तभद्र महाराज ने लिखा है "श्रेयो मार्गस्य संसिद्धि प्रासादात्परमेष्ठिनः । आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कहते हैं कि भक्ति तो गंगा के समान है, जिसमें कोई डूब जाये तो उसका तन-मन और सारा जीवन पवित्र हो जाता सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये सबसे पहले पाप भाव छोड़कर अपना जीवन धार्मिक बना लेना चाहिये। यहीं से मोक्षमार्ग शुरू होता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी द्वादश अनुप्रेक्षा में (21वीं गाथा में) कहते हैं- “जो जीव पापबुद्धि से पुत्र, स्त्री आदि के लिये धन कमाता है और दया, दान नहीं करता, वह संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है।" रयणसार ग्रंथ के अनुसार तो एक जिनभक्ति ही संसार-सागर से पार करने में सहायक है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने 'रयणसार' ग्रंथ में लिखा है पूयफलेण तिलोक्के सुरपुज्जो हवदि सुद्धमणो। दाणफलेण विलाए, सारसुहं भुंजदे णियदं।। 14।। अर्थात् शुद्ध मन वाला श्रावक पूजा के फल से तीनों लोकों में देवों से पूज्य होता है और दान के फल से तीनों लोकों में निश्चय से सारभूत सुख को भोगता है। 060
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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