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तीसरा पग कहाँ रखूँ? तीसरा पग रखने की जगह दे, नहीं तो तेरे सिर पर पग रख कर तुझे पाताल में उतार दूँगा ।”
मुनिराज की ऐसी विक्रिया होने से चारों ओर खलबली मच गई, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानों काँप उठा । देवों और मनुष्यों ने आकर श्री विष्णुकुमार की स्तुति कर विक्रिया समेटने के लिए प्रार्थना की। बलि राजा आदि चारों विष्णुकुमार जी मुनिराज के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगे - "प्रभो ! क्षमा करो। हमने आपको पहचाना नहीं ।"
श्री विष्णुकुमार ने क्षमाभावपूर्वक उन्हें अहिंसा धर्म का स्वरूप समझाया तथा जैन मुनियों की वीतरागी क्षमा बता कर उसकी महिमा समझायी और आत्मा के हित का परम उपदेश दिया। उसे सुनकर उनका हृदय परिवर्तन हुआ और अपने पाप की क्षमा माँग कर उन्होंने आत्मा के हित का मार्ग अंगीकार किया । "अरे! ऐसे शान्त वीतरागी मुनियों के ऊपर हमने इतना घोर उपसर्ग किया । धिक्कार है हमें ।' - ऐसे पश्चातापपूर्वक उन्होंने जैनधर्म धारण किया ।
इस प्रकार विष्णुकुमार ने बलि आदि का उद्धार किया और सात सौ मुनियों की रक्षा की। चारों ओर जैनधर्म की जय-जयकार गूँज उठी । तत्काल हिंसक यज्ञ बन्द हो गया और मुनिवरों का उपसर्ग दूर हुआ । हजारों श्रावक परम भक्ति से सात सौ मुनिवरों की वैयावृत्य करने लगे । बलि आदि मन्त्रियों ने मुनियों के पास जाकर क्षमा माँगी और भक्ति से उनकी सेवा की।
उपसर्ग दूर होने पर मुनिसंघ आहार के लिये हस्तिनापुर नगरी में पहुँचा। हजारों श्रावकों ने अतिशय भक्तिपूर्वक मुनियों को आहारदान दिया, उसके बाद उन श्रावकों ने स्वयं भोजन किया। देखो, श्रवकों का भी कितना धर्मप्रेम। धन्य हैं वे श्रावक । और धन्य हैं वे साधु । जिस दिन यह घटना घटी, उस दिन श्रावण सुदी पूर्णिमा का दिन
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