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उपदेश देकर मुझे मोक्षमार्ग में स्थिर किया है। सच्चे मित्र आप ही हो । आपने धर्म में मेरा स्थितिकरण करके महान उपकार किया है । अब मेरा मन संसार से और इन भोगों से सच में उदासीन हो गया है और आत्मा के रत्नत्रय धर्म की आराधना में स्थिर हो गया है। स्वप्न में भी अब इस संसार की इच्छा नहीं रही। अब तो मैं भी आपकी तरह अन्तर में लीन होकर अपनी आत्मा का कल्याण करूँगा । इस प्रकार पश्चाताप करके पुष्पडाल फिर से मुनिधर्म में स्थिर हो गये और दोनों मुनिवर वन की तरफ चल दिये।
यदि कोई भी साधर्मी धर्मात्मा कदाचित् शिथिल होकर धर्ममार्ग से डिगता हो तो उसका तिरस्कार नहीं करना, अपितु प्रीतिपूर्वक उसे धर्ममार्ग में स्थिर करना चाहिये । उसकी सर्व प्रकार से सहायता करके, धर्म में उत्साह बढ़ाकर, जैनधर्म की परम महिमा कर, वैराग्यपूर्ण सम्बोधन से, किसी भी प्रकार से धर्म में स्थिर करना चाहिए। उसी प्रकार स्वयं अपने आत्मा को भी धर्म में स्थिर करके, चाहे जितनी भी प्रतिकूलता हो, फिर भी धर्म से थोड़ा भी डिगना नहीं चाहिए ।
स्थितिकरण अंग के धारक सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा स्व व पर को सन्मार्ग से शिथिल होता जानकर उसका स्थितिकरण करते हैं। रत्नत्रय की साधना में अपनी आत्मा को या पर की आत्मा को स्थिर करना ही वास्तव में सम्यक्त्व का स्थितिकरण अंग है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है- जो गिर रहा है वह अपनी यात्रा प्रारम्भ कर चुका है। जो चींटी बार-बार चढ़ती हुई गिर रही है, वह छत पर पहुँचने के लिए सचेष्ट है । इसी तरह साधक भी अपनी मंजिल को पहचान चुका है और वहाँ वह एक दिन पहुँचेगा ही । अतः जो गिर रहा है, जो स्खलित हो रहा है, उससे घृणा न करो। उससे ऐसा कोई शब्द भी न कहो जिससे उसके हृदय को कोई आघात पहुँचे। गिरते हुये को केवल प्रेरण दो, केवल एक हस्तावलम्बन प्रदान करो और बस, फिर
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