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स्थिर करो, दूसरों को विशुद्ध करने के पहले स्वयं को शुद्ध करो। पाश्चात्य दार्शनिक इमर्सन ने सुन्दर वाक्य लिखा है- "तुम किसी को उठाना चाहते हो, तो तुम्हें उससे ऊँचे स्तर पर खड़े होना होगा।"
सम्यग्दृष्टि पहले स्वयं को स्थिर करता है। कभी- कदाचित् उसका मन उसकी श्रद्धा से, उसके ज्ञान से या उसके आचरण से अस्थिर होता है, वह अपने पथ से स्खलित होता है, तब वह अपने मन को सतत सन्मार्ग पर लगाने की चेष्टा करता है। सम्यग्दृष्टि की इस भावना को दर्शाने के लिये 'रत्नकरण्डक श्रावकचार' में श्री समन्तभद्र आचार्य ने लिखा है
दर्शनात्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः ।
प्रत्यवश्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते ।। दर्शन से, ज्ञान से या आचरण से यदि कोई धर्म के पथ से स्खलित हो जाए, तो उसे पुनः धर्ममार्ग में स्थिर करना स्थितिकरण है। यह स्व व पर के लिये है। सच्चा सम्यग्दृष्टि अपने मन को धर्म की राह पर स्थिर करने का प्रयास करता है। जो स्वयं अस्थिर हैं, वे दूसरों को स्थिर करने का प्रयत्न कर रहे हैं। अज्ञानी दूसरे का अज्ञान मिटाने का दंभ भर रहे हैं। आचार्यश्री कहते हैं- "यदि संयमी साधु का स्थितिकरण करना ही है, तो पहिले संयम के मार्ग पर स्वयं चलो। असंयमी द्वारा संयमी का स्थितिकरण कैसे हो सकता है?"
किसी गाँव में एक व्यक्ति था। वह ही वहाँ सबकुछ बना हुआ था। विद्वान पंडित, वैद्य, हकीम सब-कुछ। क्षयरोग/टी.वी. का एक मरीज उसके पास इलाज के लिये आया। उस वैद्य ने उसका निरीक्षण किया
और कहा- "ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है, तुम्हारा रोग जल्दी ठीक कर देंगे।" रोगी बड़ा प्रसन्न हुआ। बड़ी उमंग से पूछ बैठा- 'वैद्य जी! लगता है इस रोग का आपको बहुत अच्छा अनुभव है।" वह वैद्य
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