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________________ उसमें दोष उत्पन्न हो जाता है। अग्नि स्वर्ण की अशुद्धि को दूर करने के उपरान्त वह स्वर्ण के किट्ट कालिमा को लेकर ढिंढोरा नहीं पीटती कि इस स्वर्ण में इतना मैल था, मैंने शुद्ध किया है। अपितु उस मैल को जलाकर राख कर देती है, ताकि किसी को इस मैल का ज्ञान न हो। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी मूढ़ता से रहित हो वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु का उपासक हो जाता है। वह वीतरागी सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत मार्ग पर चलते वाले हजारों साधकों को देखता है। कदाचित् स्वर्ण सदृश शुद्ध मोक्षमार्ग पर चलने वक्त पूर्व कर्मवशात् अथवा स्वार्थवशात् अज्ञानी, अशक्त जीवों द्वारा कोई दूषण आ जाये, कोई कलंक लग जाये तो, सम्यग्दृष्टि जीव उनके दोषों को समाप्त करने की चेष्टा करता है, उसके दोषों को पी जाता है, उन दोषों को छुपा देता है। किसी भी प्रकार का विज्ञापन नहीं करता है। सम्यग्दृष्टि अग्नि के समान बनकर दोषयुक्त स्वर्ण को निर्दोष स्वर्ण अर्थात् मोक्षमार्गी बनाने का प्रयास करता है। अथवा उस दोष को ढकने का प्रयास करता है। स्वभाव से पवित्र मोक्षमार्ग की अज्ञानी तथा असमर्थजनों के निमित्त से उत्पन्न हुई निन्दा को समाप्त करना, परिमार्जित करना उपगूहन अंग है। यह बात विशेष ध्यान रखने योग्य है कि धर्म में कभी कोई मलिनता नहीं आती है। लेकिन सम्यग्दृष्टि जीव धर्मात्मा की मलिनता को देखकर धर्म को नहीं छोड़ता है और न ही धर्मात्मा की निन्दा करता है, अपितु उसे ढकने का प्रयास करता है। सम्यग्दृष्टि जीव दोषों का समर्थक नहीं होता है। वह मात्र धर्म की सुरक्षा के लिए धर्मात्मा के दोषों को ढकता है। कदाचित् धर्मात्मा में दोषों की वृद्धि हो जाती है तो उसे न ढाककर अव्यक्त रूप से उसी धर्मात्मा के समक्ष प्रगट करता है और धर्म की निन्दा-हँसी न हो, इस प्रकार की शिक्षा देता है। अगर आप जिन-मार्ग-मूलक वेश को धारण करके दुष्कृत्य करेंगे, तो जिनधर्म की बहुत बड़ी हानि होगी। अतः आप सावधान रहकर धर्मक्रिया करें, ताकि w 541 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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