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बंध कर लिया है, तो भोगभूमि का तिर्यंच या मनुष्य होता है और यदि देवायु का बंध किया है, तो वैमानिक देव ही होता है, भवनत्रिक में उत्पन्न नहीं होता। सम्यग्दर्शन के काल में यदि तिर्यंच और मनुष्य के आयुबंध होता है तो नियम से देवायु का ही बंध होता है, नारकी तथा देव के नियम से मनुष्यायु का ही बंध होता है। सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी गति की स्त्रीपर्याय को प्राप्त नहीं होता। मनुष्य एवं तिर्यंच गति में नपुंसक भी नहीं होता।
सम्यग्दर्शन से पवित्र मनुष्य ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से सहित उच्चकुलीन, महान् अर्थ से सहित श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं। सम्यग्दृष्टि मनुष्य यदि स्वर्ग जाते हैं तो वहाँ अणिमा आदि आठ गुणों की पुष्टि से संतुष्ट तथा सातिशय शोभा से युक्त होते हुए देवांगनाओं के समूह में चिरकाल तक क्रीडा करते हैं।
सम्यग्दर्शन के द्वारा पदार्थों का ठीक-ठीक निश्चय करने वाले पुरुष अमरेंद्र, असुरेंद्र तथा मुनींद्रों के द्वारा स्तुत चरण होते हुए लोक के शरणभूत तीर्थंकर होते हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव अंत में उस मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जो जरा से रहित है, रोग से रहित है, जहाँ सुख और विद्या का वैभव चरम सीमा को प्राप्त है तथा जो कर्म-मल से रहित है। सम्यग्दर्शन की वास्तविक महिमा यह है कि वह अनंत संसार को काटकर अर्द्ध पुद्गल परावर्तन कर देता है अर्थात् अपरिमित संसार को परिमित कर देता है।
जिनेन्द्र भगवान् में भक्ति रखने वाला सम्यग्दृष्टि भव्य मनुष्य अपरिमित महिमा से युक्त इन्द्रसमूह की महिमा को, राजाओं के मस्तक से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्त लोक को नीचा करने वाले तीर्थंकर के धर्मचक्र को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त होता है। श्री सोमदेव सूरि ने लिखा है -
चक्रिश्रीः संश्रयोत्कण्ठा नाकि श्री दर्शनोत्सुका। तस्य दुरे न मुक्ति श्रीनिर्दोषं यस्य दर्शनम् ।।
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