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कुछ समय के पश्चात् वहाँ पर राम, छोटे भाई लक्ष्मण और सीता के साथ आये। जब राम को सिंहोदर की करतूत का पता चला, तो राम ने लक्ष्मण से कहा कि जाओ, वज्रकर्ण-जैसे धर्मात्मा को शीघ्र ही सिंहोदर के चंगुल से छुड़ाओ। लक्ष्मण सीधे सिंहोदर को बन्दी बनाकर राम के पास ले आये। राम ने वज्रकर्ण से पूछा कि इसको क्या दण्ड दें ? वज्रकर्ण ने कहा कि मैं किसी को भी दुःख नहीं देना चाहता, अतः इन्हें छोड़ दिया जाये।
यह संसारी प्राणी अज्ञान के कारण अपने स्वभाव को नहीं पहचानता, इसलिये आज तक दुःखी बना हुआ है। एक 'ज्ञानोदय' नाटक है. उसमें लिखा है कि एक सभाभवन में नट और नटी आये। नट ने नटी से कहा कि आज इन श्रोताओं को कोई एक अपूर्व नाटक सुनाओ। अपूर्व ऐसा जो कभी इन्होंने सुना न हो। नटी बोली 'आर्य! ये संसारी प्राणी रात्रि- दिवस विषयों में लीन, परिग्रह की चिन्ताओं से भयाक्रांत तथा चाह की दाह से दग्ध हैं। इनको ऐसी अवस्था में सुख कहाँ?' तब नट कहने लगा प्रिये! ऐसी बात नहीं है।
आत्मस्वभावोऽस्तु शान्तः केनापि
कर्ममलकलंककारणेन अशान्तो जातः । अर्थात् आत्मा स्वभाव से शान्त है, किन्तु किन्हीं कर्ममल कलंक कारणों से वह अशान्त हो गया है। अतः इन उपद्रवों को हटाकर शान्त बन जाओ, क्योंकि शान्तता (सुख) उसका सहज स्वभाव है। प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव में रहकर ही शोभा पाता है। किन्तु अज्ञान के कारण हम लोगों की प्रवृत्ति बाहय विषयों में लीन हो रही है। विषय-सुख की प्राप्ति में सारी शक्ति लगा रहे हैं। विषयभोगों में सुख मानना मूढ़ता है।
जो बाह्य पदार्थों की अभिलाषा करता है, उस जीव को कहते हैं बहिरात्मा और जो जीव अंतरंग में बाह्य पदार्थों की रुचि नहीं करता है, किन्तु अपने ज्ञानस्वभाव की रुचि करता है, उसे कहते हैं अन्तरात्मा ज्ञानी जीव । ऐसा ज्ञानीजीव घर में रहता हुआ भी जल में कमल के समान भिन्न
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