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दिया है। पंडित भूधरदास जी रहस्य की बात कहते हैंपोषत तो दुःख दोष करै अति, शोषत सुख उपजावे।
दुर्जन देह सरूप बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै ।। राचन योग्य सरूप न याकौ, विरचन योग्य सही है।
यह तन पाय महातप कीजे, यामें सार यही है।। जिस तरह सर्प आदि दुष्ट जीवों को दूध आदि पिलाकर पुष्ट करो तो उनमें विष आदि की ही वृद्धि होती है। दुष्ट मनुष्यों का पालन-पोषण करने पर वे अपने पालन-पोषण करनेवाले को ही दुःखदाता बन जाते हैं और यदि दुष्टों को दण्ड देकर दबा दिया जावे, तो वे सीधे होकर सुखकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार यह शरीर पुष्ट हो जाने पर धर्म्यध्यान, पूजन, स्वाध्याय में प्रमाद उत्पन्न करता है। कामवासना, अभिमान आदि की वृद्धि करता है और यदि उपवास, कायोत्सर्ग, आत्मध्यान आदि द्वारा इस शरीर को दण्डित किया जावे तो यही शरीर आत्मा को सुखदायक बन जाता है। इस तरह शरीर और दुर्जन मनुष्य का स्वभाव प्रायः एक-समान है। अतः शरीर से प्रीति अज्ञानी ही किया करते हैं। यह शरीर रुचि या अनुराग करनेयोग्य नहीं है, विरक्ति करनेयोग्य है। इसलिये इस शरीर को पाकर महान् तपश्चरण करना चाहिये।
संसार में प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षा से लाभदायक है और किसी दृष्टिकोण से वह हानिकारक भी है। यही सिद्धान्त शरीर पर भी लागू होता है। जिस संयम का पालन देव नहीं कर सकते, उस संयम को इस औदारिक शरीर द्वारा ही धारण किया जा सकता है। जिस ध्यान के द्वारा यह आत्मा समस्त कर्मपुंज को भस्म करके परमात्मा बन जाता है, वह धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान भी इसी शरीर के द्वारा ही हो सकता है। इस आत्मा का पूर्ण अभ्युदय इस शरीर के सहारे सम्पन्न होता है, अतः यह अपवित्र शरीर भी आत्मा की पवित्रता का परमसाधन है।
अतः मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने शरीर का आवश्यकतानुसार
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