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धर्म से दूर चला गया था, पर अब वह पाप को छोड़कर धर्म की ओर वापस आ रहा है इसलिये यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसका स्वागत करें ।'
संसारी जीव अपनी आत्मा को नहीं पहचानते और शरीर की सेवा करने में ही अपना सारा जीवन लगा देते हैं। जिस मनुष्यभव का एक-एक क्षण अमूल्य है, वह मनुष्यभव भी शरीर की सेवा में व्यतीत हो जाता है । स्वभाव से तो यह शरीर अपवित्र है, लेकिन इसके अन्दर यदि रत्नत्रय प्रकट हो जाये, तो यह शरीर भी पवित्र माना जाता है । यदि इस शरीर में भगवान् आत्मा दिख जाये, तो यह शरीर मंदिर है, अन्यथा अशुचि पदार्थों का पिटारा है। चमड़ी से लेकर हड्डी तक चले जाइये, अशुचि पदार्थों के अलावा दूसरी चीज मिलनेवाली नहीं है।
यह शरीर केवल ऊपर से ही सुन्दर प्रतीत होता है, किन्तु उसमें भीतर सुन्दरता नहीं है । मुलम्मा (पालिश) दूर से इतना सुन्दर दिखाई पड़ता है कि उसके सामने सोना भी हेय दिखाई देता है, परन्तु कुछ ही समय में वह काला पड़ जाता है। काँच का बना हुआ नकली रत्न हीरे से भी ज्यादा चमक देता है, परन्तु उसकी वह चमक कुछ ही दिन रहती है । गुड़िया देखने में कितनी सुन्दर दिखाई देती है, परन्तु उसके भीतर चिथड़े भरे हुये होते हैं। भीतर की बदसूरती छिपाने के लिये ही ऊपर चमक-दमक की पालिश की जाती है। "मात - पिता रजवीरज सों उपजी, सब सात कुघातु भरी है। "मनुष्य का यह शरीर, जिस पर मुग्ध होकर मनुष्य अपने आपको भूल गया है, महा अशुचि मलिन पदार्थों से उत्पन्न हुआ है। यदि यह चमड़े की चादर इस शरीर पर नहीं होती तो नेवले, कौये, गिद्ध, कुत्ते, बिल्ली आदि उसे घड़ी भर भी न रहने देते। जिस शरीर की जड़ ही अशुद्ध है, उसे कितना ही शुद्ध करो, सजाओ, पर वह कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता ।
एक बार सर्दी के दिनों में कश्मीर में दो बच्चों ने विचार किया कि
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