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अष्टावक्र ऋषि का शरीर आठ जगह से टेढ़ा था। एक बार उनका राजा जनक की सभा में जाना हुआ। उनका टेढ़ा-मेढ़ा शरीर देखकर उपस्थित राजकुमार हँसने लगे। राजकुमारों के साथ जब ऋषि अष्टावक्र भी हँसने लगे, तो राजा जनक को बहुत आश्चर्य हुआ। वे ऋषि के पास आये और वंदन कर हँसने का कारण पूछने लगे। __ ऋषि ने कहा- “राजन्! तुम मुझसे पूछ रहे हो? इन राजकुमारों से क्यों नहीं पूछ रहे?" __ जनक- "ऋषिवर! ये राजकुमार अज्ञानी हैं, भोले हैं। आपकी शारीरिक वक्रता को देखकर हँस रहे हैं।"
ऋषि- "राजन्! मैं भूल से पंडितों की सभा में न पहुँचकर चमारों की सभा में पहुँच गया। मुझे इसी बात की हँसी आ रही है।"
सारे राजकुमार खड़े-खड़े राजा और ऋषि का संवाद सुन रहे थे। जब उन्होंने अपनी सभा को "चमारों की सभा' सुना, तो आश्चर्य का पार नहीं रहा। ऋषि ने अपनी जान-रश्मि से उनके अभिमान का अंधकार दर करते हुये कहा- “चाम को संवारने का काम चमारों का होता है। जिस सभा में चाम के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन होता है, क्या वह चमारों की सभा नहीं है?" हमें मनुष्य के रूप और आकार का नहीं, ज्ञान और गुणों का महत्व समझना चाहिये।
कुमारों को अपनी त्रुटि का अनुभव हुआ और वे ऋषि के चरणों में गिरकर क्षमायाचना माँगने लगे। निर्विचिकित्सा अंग में उद्दायन राजा प्रसिद्ध हुये हैं। ___ सौधर्म स्वर्ग में देवसभा चल रही थी और इन्द्र महाराज देवों को सम्यग्दर्शन की महिमा समझा रहे थे- अहो देवो! सम्यग्दृष्टि मुनिराजों को आत्मा का कोई अपूर्व सुख होता है। इस सुख के सामने स्वर्ग के वैभव की कोई गिनती नहीं है। इस स्वर्गलोक में साधु-दशा नहीं हो सकती, परन्तु सम्यग्दर्शन की आराधना तो यहाँ भी हो सकती है।
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