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निर्विचिकित्सा अंग
सम्यग्दृष्टि जीव रत्नत्रय से पवित्र मुनिराजों के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करता। वह उनके शरीर की सेवा-सुश्रुषा ग्लानि-रहित होकर करता है। वह जानता है कि शरीर पूज्य नहीं है अपितु शरीर के भीतर आत्मा में रत्नत्रय विद्यमान है वही पूज्य है, ग्रहणीय है। अतः जिस प्रकार मल में पड़े हीरे को नहीं छोड़ा जाता है, उसी प्रकार मलिन शरीर रूपी तिजोरी के भीतर रत्नत्रय रूपी खजाना भरा है, उसे छोड़ा नहीं जाता। वही उपादेय है। उन्हीं गुणों के प्रति प्रीति करता है, उन्हीं गुणों को प्राप्त करने की चाहना सम्यग्दृष्टि को होती है। ___इस संसार में देवों का शरीर मलरहित पवित्र होता है, पर रत्नत्रय को धारण करने की अयोग्यता होने से पूज्य नहीं है। केवल मनुष्य का ही शरीर है, जो मलों से युक्त होकर भी रत्नत्रय धारण कर सकने की योग्यता होने से पूज्य है, प्रीति योग्य है। अतः शरीर की अपवित्रता का ख्याल न करते हुये मुनिराजों के प्रति ग्लानि-रहित आदर व्यक्त करना ही निर्विचिकित्सा नाम का अंग है। यदि कदाचित् रत्नत्रयधारी मुनिराजों के शरीर में रोग हो जाये, शरीर से मलादि बहने लगे, शरीर से अत्यन्त दुर्गन्ध आवे कि पास बैठना, खड़ा होना भी दूभर हो जाये, ऐसी गंभीर स्थिति में भी सम्यग्दृष्टि जीव उनकी सभी प्रकार से सेवा करता है। मन में ग्लानि का भाव नहीं लाता, उनकी सेवा को अपना सौभाग्य समझता है और उनके थूक-लार, मल-मूत्र, वमन आदि को उठाने में, सफाई में
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