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बादल गरजने लगते हैं, पानी बरसने लगता है, पतंग भीग जाती है और नीचे कीचड़ में गिरकर नष्ट हो जाती है।
इसी प्रकार असंयमी का जीवन कटी पतंग के समान स्वछन्द होता है। पंचेन्द्रियों के विषय और मन हवा के समान हैं, जो इसको लुभाते हैं और संसार रूपी कीचड़ में फंसा देते हैं। संसार के वैभव और विषय-भोग तो केवल पापास्रव के ही कारण हैं। अतः सम्यग्दृष्टि कभी भी विषय भोगों की आकांक्षा नहीं करता। वह जानता है कि चक्रवर्ती का वैभव भी रत्नत्रय के बिना महत्वहीन होता है। इन्द्र, चक्रवर्ती, राजा आदि भी विषयों की चाह के कारण दुःखी हैं। जिनके पास रत्नत्रय नहीं है, उनके जीवन का कोई महत्व नहीं है। जीवन की महत्ता वस्तु से नहीं, धन से नहीं, भोगोपभोग से नहीं, पुण्य के ठाठ से भी नहीं है। जीवन का सबसे बड़ा ऐश्वर्य, वैभव यदि कोई है तो वह है रत्नत्रय । क्योंकि आत्मा की अनुभूति बिना रत्नत्रय के नहीं होती। राजसत्ता, वैभव, पद एवं इन्द्रिय-विषयों में सुख नहीं है। ये तो महाविष हैं, जो केवल संसार में भटकाने वाले हैं। अतः सम्यग्दृष्टि धर्म के फल में कभी भी सांसारिक सुखों की आकांक्षा नहीं करता। आचार्य कार्तिकेय महाराज ने 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' ग्रंथ में लिखा है
जो सग्गसुहणिमित्तं, धम्मं णायरदि दूसह-तवेहिं। मोक्खं समीहमाणो, णिक्खंखा जायदे तस्स ।।416।।
जो सम्यग्दृष्टि दुर्द्धर तप से भी मोक्ष की ही बांछा करता हुआ स्वर्ग-सुख के लिये धर्म का आचरण नहीं करता है, उसके निःकांक्षित अंग होता है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने 'अष्ट पाहुड़' ग्रंथ के अनुवाद में लिखा है
जो एक बार विष सेवन ही करेगा, तो एक बार वह जीवन में मरेगा। धिक्कार है विषय-सेवन जो करेगा, सो बार-बार भव-कानन में मरेगा।। जो वासना विषय की जबलों रखेगा, शुद्धात्म को न नर वो तब लों लखेगा। योगी जभी विषय से अति दूर होता, शुद्धात्म को निरखता सुन मूढ़ श्रोता।।
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