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और उस पर बीती हुई कहानी को सुनकर अत्यंत दुःखी हुये और कहने लगे - बेटी! तुमने बहुत कष्ट भोगे हैं, अब हमारे साथ घर चलो। हम तुम्हारी शादी बड़ी धूमधाम से रचायेंगे ।
शादी की बात सुनते ही अनन्तमती आश्चर्य में पड़ गयी और बोलीपिताजी! आप यह क्या कह रहे हो? मैं तो ब्रह्मचर्य व्रत ले चुकी हूँ । आप तो यह सब जानते हो । आपने ही मुझे यह व्रत दिलवाया था ।
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पिताजी ने कहा- बेटी! यह तो बचपन की बात थी । ऐसी मजाक में ली हुई प्रतिज्ञा को तुम सत्य मानती हो? वैसे ही उस वक्त सिर्फ आठ दिन के लिये प्रतिज्ञा लेने की बात थी, इसलिये अब तुम शादी कर लो । तब अनन्तमती ने दृढ़तापूर्वक कहा - पिताजी! आप भले ही आठ दिन लिये समझे हों, परन्तु मैंने तो मेरे मन में आजीवन के लिये प्रतिज्ञा धारण कर ली थी। अपनी प्रतिज्ञा मैं प्राणान्त होने पर भी नहीं तोडूंगी इसलिये आप शादी का नाम न लें।
अन्त में पिताजी ने कहा- अच्छा बेटी! जैसी तुम्हारी मर्जी । परन्तु अभी तो तुम हमारे साथ घर चलो, वहीं धर्मसाधना करना ।
उस पर अनन्तमती कहती है- पिताजी! इस संसार की लीला मैंने देख ली है। संसार में भोग- लालसा के अलावा अन्य क्या है? इसलिये अब बस करो। पिताजी! इस संसारसंबंधी भोगों की मुझे आकांक्षा नहीं रही। मैं तो अब दीक्षा लेकर आर्यिका बनूँगी और इन धर्मात्मा आर्यिका माता के साथ रहकर आत्मिक सुख को साधूँगी ।
पिताजी ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु जिसके रोम-रोम में वैराग्य छा गया हो, वह इस संसार में क्यों रहे ? संसारसुखों की स्वप्न में भी इच्छा नहीं करने वाली वह अनन्तमती निःकांक्ष भावना के दृढ़ संस्कार के बल से मोह - बन्धन को तोड़कर वीतराग धर्म की साधना में तत्पर हो गई। पश्चात् उसने पद्मश्री आर्यिका के समीप दीक्षा अंगीकार कर ली और धर्म्यध्यानपूर्वक समाधिमरण करके स्त्रीपर्याय को छेदकर
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