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इस प्रसंग के बाद अनेक वर्ष बीत गये, अनन्तमती अब युवती हो गई, उसका यौवन सोलह कलाओं के समान खिल उठा। रूप के साथ उसके धर्म के संस्कार भी वृद्धिंगत हो गये। एक बार सखियों के साथ वह बगीचे में घूमने गई। वह एक झूले पर झूल रही थी, उसी समय आकाश मार्ग से एक विद्याधर राजा जा रहा था । वह अनन्तमती के अद्भुत रूप को देखकर मोहित हो गया, इसलिये वह उसे उठाकर विमान में ले गया, परन्तु इतने में उसकी रानी वहाँ आ पहुँची तो घबराकर विद्याधर ने अनन्तमती को एक भयंकर वन में छोड़ दिया। ऐसे घोर वन में पड़ी हुई अनन्तमती भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी और कहने लगी'अरे! इस वन में कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? यहाँ कोई मनुष्य भी तो दिखाई नहीं देता।' दुर्भाग्य से उस वन का भील राजा शिकार करने के लिये वहाँ आया। उसने अनन्तमती को देखा और वह उस पर मोहित हो गया । उसके मन में विचार आया कि यह कोई वनदेवी दिखाई देती है । ऐसी अद्भुत सुन्दरी मुझे दैवयोग में मिली है। वह उसे घर ले गया।
घर पहुँचकर वह कहने लगा- "हे देवी! मैं तुझ पर मुग्ध हो गया हूँ और मैं तुझे अपनी रानी बनाना चाहता हूँ.. | तू मेरी आशा पूरी
कर।"
निर्दोष अनन्तमती उस कामी भील राजा की बात सुनकर बहुत घबरायी । वह विचार करने लगी- "अरे! में शीलव्रत की धारक और मुझ पर यह क्या हो रहा है ? पूर्व में किन्हीं गुणीजनों के शील पर अवश्य मैंने झूठा कलंक लगाया होगा अथवा उनका अनादर किया होगा । उस दुष्टकर्म के कारण जहाँ भी जाती हूँ वहाँ मेरे ऊपर ऐसी विपत्ति आ रही है । परन्तु अब मैंने धर्म की शरण ली है। इसके प्रताप से शीलव्रत से मैं डगमगाऊँगी नहीं। भले ही प्राण चले जायें, परन्तु मैं अपने शील को नहीं छोडूंगी ।
तब उसने भील से कहा- अरे दुष्ट! अपनी दुर्बुद्धि को छोड़ | तेरे
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