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अमितप्रभ और विद्युतप्रभ नाम के दो देव पूर्व भव में मित्र थे। अमितप्रभ जैनधर्म का भक्त था और विद्युतप्रभ कुधर्म को मानता था। एक बार वे दोनों धर्म की परीक्षा करने निकले। रास्ते में एक अज्ञानी तपस्वी को तप करते देखकर उन्होंने उसकी परीक्षा करनी चाही। उस तपस्वी से विद्युतप्रभ ने कहा"अरे बाबा! पुत्र के बिना सदगति नहीं होती – ऐसा शास्त्र में कहा है।" ऐसा सुनकर वह तपस्वी तो झूठे धर्म की श्रद्धा से उत्पन्न हुआ वैराग्य छोड़ कर संसार के भोग भोगने चला गया। यह देखकर विद्युतप्रभ की कुगुरुओं की श्रद्धा तो छूट गई। लेकिन बाद में उसने कहा-"अब जैन गुरु की परीक्षा करेंगे।"
तब अमितप्रभ ने उससे कहा-“हे मित्र! जैन साधु तो परम वीतरागी होते हैं, उनकी तो बात ही क्या करें ? अरे ! उनकी परीक्षा तो दूर रही, देखो सामने यह जिनदत्त नामक एक श्रावक सामायिक की प्रतिज्ञा करके अन्धेरी रात में यहाँ श्मशान में अकेला ध्यान कर रहा है, तुम उसी की परीक्षा कर लो।
तब उस देव ने अनेक प्रकार से उपद्रव किया. परन्त जिनदत्त सेठ तो सामायिक में पर्वत के समान अटल रहे, अपनी आत्मा की शान्ति से जरा भी डगमगाये नहीं। अनेक प्रकार के भोग-विलास बताये, तो भी वे लालायित नहीं हुए। एक जैन श्रावक की ऐसी दृढ़ता देखकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सेठ जी को आकाशगामिनी विद्या प्रदान की। आकाशगामिनी विद्या के बल से जिनदत्त सेठ प्रतिदिन मेरु पर्वत पर जाते और वहाँ के अद्भुत रत्नमय जिनबिम्बों के तथा चारणऋद्धिधारी मुनिवरों के दर्शन करते, जिससे उन्हें बहुत आनन्द आता।
एक बार सोमदत्त नामक माली ने सेठ जी से पूछा-“सेठ जी! आपने आकाशगामिनी विद्या सम्बन्धी बहुत-सी बातें कहीं और रत्नमय जिनबिम्बों का बहुत वर्णन किया, उसे सुनकर मुझे भी वहाँ के दर्शन करने की भावना जागी है। आप मुझे आकाशगामिनी विद्या सिखाइये, जिससे मैं भी वहाँ के दर्शन करूँ।"
सेठ जी ने माली को वह विद्या सिखाई। सेठ जी के बताये अनुसार अन् री चतुर्दशी की रात के समय श्मशान में जाकर उसने पेड़ पर सींका लटकाया
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