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निःशंकित अंग
'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने लिखा है
सकलमनेकान्तात्मक-मिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः । किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्केतिकर्तव्या ।।23।।
सर्वज्ञदेव के द्वारा कहा गया समस्त वस्तुस्वरूप अनेकान्त स्वभाव रूप है, वह क्या सत्य है अथवा असत्य है? ऐसी शंका कभी नहीं करना चाहिए।
सर्वज्ञ भगवान् ने जैसा कहा है, वैसा ही जीवादि तत्त्वों का स्वरूप है। उनमें सम्यग्दृष्टि को शंका नहीं होती। शंका का अर्थ है संदेह । सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होता है। उसे मोक्षमार्ग पर किसी भी प्रकार की शंका या संदेह नहीं रहता।
श्रद्धा के अभाव में की गई उपासना, सेवा, भक्ति आदि मात्र लौकिक पुण्य की वृद्धि में कारण हैं, आत्मिक विकास में कारण नहीं हैं। श्रद्धा तो संदेह रहित होती है। 'तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा' तत्त्वार्थों के विषय में उन्मुख बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं। संसार के चक्रव्यूह से निकालने के लिये तत्त्वों पर, देव-शास्त्र-गुरु पर, मोक्षमार्ग पर श्रद्धा का होना आवश्यक है। द्रव्यसंग्रह गाथा 41 की टीका करते हुये ब्रह्मदेव सूरि जी ने लिखा है- रागादि दोषा अज्ञानं वासत्वचने कारणं तदुभयमपि वीतराग सर्वज्ञानां नास्ति ततः कारणात्तत्प्रणीते हेयोपादेय तत्त्वे मोक्षे मोक्षमार्गे। च भव्यैः संशयः संदेहो न कर्त्तव्यः।
राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य बोलने में कारण हैं और ये दोनों ही वीतराग जिनेन्द्रदेव में नहीं हैं। इस कारण उनके द्वारा बताये गये हेयोपादेय तत्त्वों, में मोक्षमार्ग में भव्यजीवों को संशय नहीं करना चाहिये।
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