________________
करें। इस प्रकार की जगहितकरी भावना से अनुप्राणित होकर वह सदा अपने आचरण को विशुद्ध बनाये रखता है। उसका आचरण ऐसा बन जाता है कि उसे देखकर लोगों को धार्मिक आस्था उत्पन्न होने लगती है। वह परोपकार, ज्ञान, संयम आदि के द्वारा विश्व में अहिंसा के सिद्धांतों का प्रचार करता है तथा अनेक प्रकार के धार्मिक उत्सवों को भी करता है, जिसमें हजारों लोग एक स्थान पर एकत्रित होकर सद्भावनापूर्वक विश्वक्षेम की भावना भाते हैं, जिसे देखकर लोगों को अहिंसा धर्म की महिमा का भान होता है। यह उसका प्रभावना अंग है।
सम्यग्दर्शन के इन आठ अंगों की तलना हम अपने शरीर के आठ अंगों से कर सकते हैं। शरीर के भी आठ अंग होते हैं- दो पैर, दो हाथ, नितंब, पीठ, वक्षस्थल और मस्तिष्क । जब हम चलते हैं, तो चलते वक्त एक बार रास्ता देख लेने के बाद बिना किसी संदेह के अपना दाँया पैर बढ़ा लेते हैं। दाँया पैर बढ़ते ही बिना किसी आकांक्षा के अपना बाँया पैर स्वयं बढ़ जाता है, यही तो निःशंकित और नि:कांक्षित अंग का लक्षण है। अत: दाँया और बाँया पैर क्रमश: निःशंकित और निःकांक्षित अंग के प्रतीक हैं।
बाँया हाथ निर्विचिकित्सा अंग का प्रतीक है। जिस प्रकार बाँये हाथ को ग्लानि नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि मुनिराजों के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करता।
जब हमें किसी बात पर जोर देना होता है, जब हम कोई बात आत्मविश्वास से भरकर कहते हैं, तब हम अपना दाँया हाथ उठाकर बताते हैं तथा अन्य किसी की बात पर ध्यान नहीं देते। यह अमूढदृष्टि अंग का प्रतीक है, क्योंकि इस अंग के होने पर वह अपनी श्रद्धा पर अटल रहता है तथा उन्मार्गियों और उन्मार्ग से प्रभावित नहीं होता।
शरीर का पाँचवाँ अंग नितम्ब है। इसे सदैव ढक कर रखा जाता है। इसे खुला रखने पर लज्जा का अनुभव होता है, यही तो उपगूहन अंग है, क्योंकि इसमें अपने गुण और पर के अवगुण को ढाँका जाता है। नितम्ब उपगूहन अंग का प्रतीक है। सम्यग्दर्शन का छठा अंग है स्थितिकरण। पीठ सीधी हो, तभी व्यक्ति
10 452_n