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अज्ञानियों को। मूल में भूल कर देना, यह कितनी बड़ी भूल होगी? एक कथा है कि एक दामाद अपनी ससुराल गया। उन दिनों में उसका ससुर बाहर शहर में गया था, बीमार पड़ा रहता था, बीमारी की चिट्ठियाँ आ रही थीं। कुछ दिनों में चट्ठी आयी। जब दामाद भी वहाँ था, लोगों ने कहा कि लालाजी से चिट्ठी पढ़वा लें। अब लालाजी मन में पछताने लगे कि अगर हम पढ़े-लिखे होते तो चिट्ठी बांच देते। लालजी दुःखी होकर बैठ गए और दुःख के आँसू भी आ गये। सास आदि ने जब रोना देखा, तो सब यह समझे कि उनका ससुर मर गया है। ऐसा समझकर घर के लोग रोने लगे, तो पड़ोस के लोग आ गए, वे भी रोने लगे। गाँव में हल्ला मच गया तो जमींदार भी आये, पूछा कि क्यों रोते हो? वह बोला - करम फूट गया है। जमींदार ने पूछा कि खबर आयी है या कोई चिट्ठी आई है? चिट्ठी मँगाई गयी, उसे पढ़ा, तो लिखा था कि हमारी तबियत ठीक है, तीन दिन में आ रहे हैं। अब जड़ का पता किसी ने न लगया। मूल में था क्या? उसमें लिखी चीज का तो कुछ पता नहीं लगाया, उसका फल यह अनर्थ हुआ। हम मूल में क्या हैं, इसका कुछ पता नहीं लगा। हम ज्ञानमय हैं, सबसे निराले हैं, हम झंझटी नहीं है। मैं एक पदार्थ हूँ, इसमें कोई विवाद का काम ही नहीं है। मैं अपने स्वभाव को भूल गया और स्वरूप को भूलने के कारण दुनियाँ भर में भटकता रहा।
जगत् में जितना भी क्लेश है, वह सब आत्मा के भ्रम का क्लेश है। बाहरी पदार्थों में आत्मतत्त्व का भ्रम हो गया, इसीलिए क्लेश होता है। यह क्लेश स्वयं ने ही तो बनाया है। भ्रम किया, कि दुःख हो गया। धन-वैभव जो कुछ होता है, नाशवान् होता है, उससे दुःख होता है; क्योंकि जो परपदार्थ हैं, उन सबकी सत्ता जुदी है। उसमें यह उपयोग कर लिया कि यह मैं हूँ, ये मेरा है। बस, दुःख होने लगता है। यह तो है अन्याय की बात । अभी जीवन में, घर में, पास-पड़ोस में, समाज में, मित्रों में अधिक तरह से भ्रमों का क्लेश रहा करता है। किसी भी बात का भ्रम हो गया, बस, अलग बैठे-बैठे दुःखी हो रहे हैं। यह भ्रम का क्लेश हमने ही तो स्वयं बनाया है और हम ही इस भ्रम को नष्ट करेंगे तो यह कलेश नष्ट हो सकते हैं अन्यथा नहीं होंगे। जैसे एक उदाहरण लो कि एक करोड़पति
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