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हे प्रियतम! किसी प्रकार भी, मर करके भी अथवा बड़े कठिन यत्न करके भी, तन, मन, धन, वचन समर्पित करके भी, तत्त्व का कौतूहली होते हुए भी, एक क्षण मुहूर्त मात्र को भवमूर्ति का पड़ोसी बनकर अपने आपको अनुभव तो कर | संसार की मूर्ति है यह शरीर। इससे ही तो सब समझ में आ रहा है कि यह संसारी है। इस भवमूर्ति के पड़ोसी बनकर अपने आपका अनुभव करो।
भैया! यह आत्माराम, यह चित्स्वभाव यह भीतर में बड़े ही आराम से विराजमान सबसे पृथक् विलस रहा है, शोभायमान हो रहा है। ऐसा इस देह से पृथक् चैतन्यस्वभाव मात्र एक अपने आपको तो देखो। कहाँ हैं संकट? वहाँ तो संकट ही नहीं है। कैसी है पराधीनता? कहीं पर भी पराधीनता नहीं। इस अपने प्रभुत्व का दर्शन कैसे हो? सबसे विरक्त अपने आपके सर्वस्व एक इस अपने आपके पदार्थ को देखो। इसको दूसरे से अटक ही क्या है? यह स्वयं सत् है। इसे कुछ नहीं बनाना है, वह तो आनन्द से पूरा बना-बनाया ही है। अपने आप- में विराजमान इस निज को देखो, जिससे इस देह के साथ एकत्व का मोह छूटे । जीवन तभी से है, जबसे इसने अपने आपमें सहज स्वयं की पहिचान की।
एक साधु महाराज थे। एक दिन एक श्रावक के यहाँ भोजन किया। भोजन करके आँगन में बैठ गये। सो सेठ की बहू ने पूछा कि महाराज! आप इतने सवेरे क्यों आ गये? (भैया! आये 10 बजे आहार को। अच्छी कड़ी धूप भी थी।) महाराज बोले कि बेटी! समय की खबर नहीं रही। इतनी बात सुनकर लोग दंग रहे गये कि समय खबर नहीं रही। अब साधु ने पूछा कि बेटी! तेरी क्या उम्र है? (इससे भैया! क्या मतलब? सब बातें लोग सुन रहे और अटपट अनुभव कर रहे हैं।) इतने में बहू उत्तर देती है कि महाराज! मेरी उम्र 4 वर्ष की है। (30 वर्ष की तो उम्र है और 4 वर्ष की।) साधु ने पूछा कि तुम्हारे पति की उम्र कितनी है? वह बोली- 'महाराज! मरे पति की उम्र 4 महीने की है। और ससुर की उम्र कितनी है?' ससुर अभी पैदा नहीं हुये हैं।' अच्छा, तुम ताजा खाना खाती हो कि बासा? 'महाराज! हम बासा खाना खाते हैं।' इतनी बात के बाद महाराज चल दिये। अब तो सेठ बहू से लड़ने लगे कि तूने हमारे कुल को
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