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जैसा आपने किया है, वैसा ही मैं भी करूँ और वह होगा भेदविज्ञान से। भेदविज्ञान के बल से परपदार्थों से हटकर निज आत्मा में लगो। राग छोड़ दो, तो उपद्रव रहित हो जाओगे अन्यथा क्लेश ही प्राप्त होगा। राग के कारण ही अन्तर में ऐसा भाव का वातावरण बनता है कि मरण के बाद फिर नये शरीर को पाता है जो कि दुःख का मूल है। अब शरीर के भी राग को छोड़कर अपने वास्तविक स्वरूप को पहिचानो और उसका ध्यान करो।
भैया! यह राग तो एक-न-एक दिन छोड़ना पड़ेगा तथा राग-द्वेषरहित वीतराग अवस्था को एन-न-एक दिन तो अवश्य ही धारण करना पड़ेगा, तभी मुक्ति प्राप्त हो सकेगी। तब क्यों अपना समय नष्ट करके दुःख में रुलता फिरूँ? इसके लिए कोई अवस्था विशेष निश्चित नहीं कि वृद्धावस्था में ही राग-द्वेष छोड़ना चाहिये या अमुक अवस्था में त्याग करना चाहिये। ये तो जितना शीघ्र छूट जावे उतना ही अच्छा है। जैसे-जैसे रागबुद्धि करोगे, वैसे ही कर्मबन्ध होते जायेंगे और जैसे-जैसे वीतराग होओगे, तो कर्म स्वयं ही तड़ातड़ टूटते चले जावेंगे । अतः राग को त्याग कर अपने स्वरूप मे लीन रहकर मैं स्वयं सुखी होऊँ।
देहे बुद्धि या वपुः स्वस्य बुद्धया स्वः प्राप्स्यते मया। ज्ञानमात्र मतिमेऽस्तु स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ।।1-32||
"देह में आत्मा या शरीर मैं हूँ," की बुद्धि करने से मेरे द्वारा शरीर प्राप्त किया जावेगा और निज आत्मा में निज आत्मा की बुद्धि करने से निज आत्मा प्राप्त होगा। इसलिए मेरी ज्ञानमात्र बुद्धि हो और अपने में अपने लिये स्वयं सुखी होऊँ।
स्त्री, पुत्र, माता-पिता आदि सारे नाते शरीर के साथ हैं। मैं आत्मा सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ, विशुद्ध हूँ। जो जगत के मायाजाल से हटकर अपने स्वरूप में दृष्टि देगा, वह संसार से पार हो जायेगा। जो शरीर में आत्मबुद्धि करेगा, उसे शरीर मिलता चला जायेगा और जो आत्मा में आत्मबुद्धि करेगा, उसे ज्ञान मात्र यह आत्मा मिलेगा और शरीर छूट जायेगा। इन सब की अवस्था करने वाला मैं हूँ। यह शरीर रहे या मुक्ति हो, इन सबका जिम्मेदार मैं हूँ। जब केवल बुद्धिमात्र
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