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परम् शक्तिधारी, अनुपम, अविकारी, निजानन्द आत्मा जब शरीर और उसके विकारों की चिन्ता से निवृत्त हो जाता है और पुद्गल की संगति से होने वाले भावों का भी तिरस्कार करता है, तब पहले एक जाति के राग-द्वेष में फँस जाता है। में सिद्ध की जाति का धारी, निराकुल सुख का भोक्ता, परम वीतराग और शुद्ध हूँ। यह मेरी शक्ति है । इसी की प्राप्ति मेरे को उपादेय है, यह तो राग पैदा होता है और यह चार गतिमय संसार, यह द्रव्यकर्म, यह भावकर्म, यह नोकर्म, यह परिवार, यह धन-सम्पदा, यह लौकिक ऐश्वर्य यह सब आत्मा के स्वरूप से भिन्न हैं, इनका संग आत्मा की हानि करने वाला है, इस प्रकार का द्वेष पैदा होता है। स्व से प्रेम, पर से अप्रेम इस जाति के राग-द्वेष में भीगे हुए आत्मा के शनैः-शनैः स्व का प्रेम अपने शुद्ध आत्मिक अनुभव के आनंद में डूबते हुए विलय हो जाता है, तब किसी जाति का राग-द्वेष नहीं होता । इस परिणति को स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं । इसी परिणति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों उसी तरह घुले रहते हैं जैसे एक ठंडाई में पानी, शक्कर, मसाला आदि सब घुलजाते हैं और जैसे इस ठंडाई को पीने से तीनों का ही एक साथ अभिन्न अनुभव होता है। ऐसे ही स्व संवेदन ज्ञान में अभेद नय से तीनों काही प्रवेश है और वहाँ तीनों का एक होना ही परम विलक्षण अनुभव है - यही परिणति निश्चय से मोक्ष का मार्ग है, जो इस मार्ग में बिना जरा भी गिरे हुए अंतर्मुहूर्त्त डटे रहते हैं, वे तुरन्त भाव - मोक्ष का लाभकर जीवनमुक्त परमात्मा हो जाते हैं और जो पूर्ण डटे नहीं रह सकते वे इस परिणति से गिरकर फिर भी इसी की भावना करते हैं, जिसके प्रताप से वे पुनः इस स्वंसवेदन ज्ञान में आ जाते हैं।
सर्व संसार-विकल्पों से दूर ज्ञानानंदमय स्वाभाविक तत्त्व का मनन व अनुभव इस मुमुक्ष जीव को मोक्ष प्राप्ति का उपाय है । अनंतगुण पर्यायों का समूह चेतनता लक्षणधारी स्व-तत्त्व में विलास आत्मिक अतींद्रिय आल्हाद के लाभ बिना संसार विकल्पजनित चिन्ताओं से इस प्राणी का बचाव नहीं होता। मैं निश्चय से अष्टकर्म रहित रागद्वेष मोह की कालिमा से वर्जित शरीरादि सम्बन्ध ा बिना स्फटिकमणि के समान पूर्ण निर्मल एक शुद्ध गुण पर्यायमय आत्म पदार्थ U 388 S