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हे योगी! अपनी शुद्धात्मा में ओर जिनेन्द्र भगवान में कोई भी भेद मत समझो, मोक्ष का साधन निश्चय से यही है। आगे आचार्य श्री परमात्मप्रकाश में लिखते हैं
जेहउ णिम्मलु णाणमउ, सिद्धहिं णिवसइ देउ।
तेहउ णिवसइ बंभु परु, देहं मं करि भेउ ।।26 ।। जैसे निर्मल ज्ञानमय परमात्म देव सिद्धगति में निवास करते हैं, वैसे ही परमब्रह्म परमात्मा इस शरीर में निवास करता है, सिद्ध भगवान् तथा अपने में कुछ भेद न जान।
जिसने मोह को छोड़कर समस्त जगत से भिन्न ज्ञायक स्वभाव निज आत्मा को पहचाना, उसी ने शुद्ध स्वभाव को उपलब्ध कर मुक्ति को प्राप्त किया। जिन तीर्थंकरों की हम उपासना करते हैं, उन तीर्थंकरों ने इसी मार्ग का अनुसरण किया। निज को निज पर को पर जानो, ऐसा ही उन्होंने जाना और फिर सबको छोड़कर रत्नत्रय की साधना की जिसके परिणाम स्वरूप वे परमात्मा बने और हम सब उनकी पूजा करते हैं। ___ यदि आपके मन में यह जिज्ञासा हुई है, ऐसा संकल्प किया है कि मुझे तो संसार के दुःखों से छूटना है तो इनसे छुटकारे का जो उपाय है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र उसे धारण करो और सदा अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करो।
यदि संसार के दुःखों से बचना चाहते हो तो आत्मिक सुख को पहचानकर बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि बन जाओ, ये शरीर की अवस्थायें अमूर्त एवं चिदानन्द आत्मा को पीड़ा नहीं दे सकतीं जैसे घर में लगी हुई आग घर को जला सकती है पर घर के भीतर विद्यमान अमूर्त आकाश को नहीं जला सकती। ऐसे अनेक मुनिराज हुये जिन्होंने उपसर्गों को समता पूर्वक सहन किया और शरीर से भिन्न आत्मा का ध्यान कर मुक्ति को प्राप्त किया।
सुकुमाल स्वामी का शरीर कितना सुकुमार था, जिन्हें आसन पर पड़े हुये राई के दाने भी चुभते थे, दीपक की लौ की ओर देखने पर उनकी आँखों से पानी आ जाता था, पर जब उन्हें शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान हो गया, वे
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