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सम्यक्त्वाचरण एवं विशेष ।
जिण्णाणदिट्ठिसुद्धं पढम सम्मत्तचरणचारित्तं । विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि।।
__ अष्टपाहुड-(चारित्रपहुड) जब जीव को आत्मा और आत्मा से भिन्न वस्तु का ज्ञान हो जाता है अर्थात 'मैं शरीरादि से भिन्न अखण्ड, अविनाशी शुद्धात्मतत्त्व भगवान् आत्मा हूँ, ये शरीरादि मेरे नहीं हैं और न ही मैं इनका हूँ" तब उसे पर से भिन्न निज आत्मा की रुचि पैदा हो जाती है, और संसार, शरीर, भोगों से अरुचि पैदा हो जाती है। वह हमेशा आत्म सन्मुख रहने का पुरुषार्थ किया करता है। वह जिनदेव की कही हुई जिनवाणी माँ और दिगम्बर गुरु के उपदेश को अपने आचरण में लाकर अपनी मंजिल (सच्चे सुख) की तरफ बढ़ता जाता है। एक दिन ऐसा आता कि वह सर्व परिग्रह को त्याग, आत्मा में लीन हो, सर्वकर्मों को काटकर सदा के लिए इस दुःखद संसार से पार हो जाता है और अनन्त काल तक अतीन्द्रिय आनन्द को भोगता है। अन्तरात्मा का स्वरूप बताते हुए आचार्य योगीन्दुदेव कहते हैं
जो परियाणइ अप्पु परु जो परभाव चएइ।
सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसाररु मुएइ ।।8।। जो कोई आत्मा और पर को अर्थात भिन्न पदार्थों को भले प्रकार पहचानता है तथा जो अपने आत्मा के स्वभाव को छोड़कर अन्य सब भावों को त्याग देता है, वह पंडित भेदविज्ञानी अन्तरात्मा है, वह अपने आप का अनुभव करता है, वही संसार से छूट जाता है।
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