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कहा कि मैंने भी एक स्वप्न देखा है, जो इससे थोड़ा आगे तक है। आप तो गन्ने के रस के गड्ढे में गिर गये और मैं गोबर के गड्ढे में गिर गया। इतना तो ठीक है, परन्तु इससे आगे यह और था कि आप मुझे चाँट रहे हैं और मैं आपको चाँट रहा हूँ। अब अपनी बात है। यह आत्मा कर्म के कषाय के गड्ढे में गिरी हुई है। परन्तु यह आत्मा कर्म के फल सुख-दुख का स्वाद भी ले सकती है, अथवा अपने ज्ञान का स्वाद भी ले सकती है। गोबर के गड्ढे में पड़ा अथवा गन्ने के रस के गड्ढे में सवाल यह नहीं है। सवाल है कि स्वाद किसका लेना चाहता है? किसका ले रहा है? कर्म के मध्य पड़ा हआ अपने चेतन स्वभाव का स्वाद ले सकता है। ज्ञान भी हमारे पास है और कर्म का फल भी हमारे पास है। स्वाद लेने वाले हम ही हैं। यदि हमें आत्मा का ज्ञान हो जाये, आत्मा की अनुभूति हो जाये, तो हम चेतन का स्वाद ले सकते हैं, जिसके आगे अन्य सारे स्वाद स्वादहीन हो जाते हैं।
सम्यग्दर्शन का अचिन्त्य महात्म्य है। सम्यग्दर्शन के रहने से विवेक शक्ति सदा जाग्रत रहती है। वह विपत्ति में पड़ने पर भी कभी अन्याय को न्याय नहीं समझता। रामचन्द्र जी सीता को छुड़ाने के लिये लंका गये थे। लंका के चारों ओर उनका कटक पड़ा था। हनुमान आदि ने रामचन्द्र जी को सूचना दी कि रावण जिनमंदिर में बहुरूपणी विद्या सिद्ध कर रहा है। यदि उसे यह विद्या सिद्ध हो गई, तो फिर वह अजेय हो जायेगा। आप आज्ञा दीजिये जिससे हम लोग उसकी विद्या सिद्धि में विध्न करें। रामचन्द्रजी ने कहा-हम क्षत्रिय हैं। कोई धर्म करे और हम उसमें विध्न डालें यह हमारा कर्तव्य नहीं है। हनुमान जी बोले कि फिर सीता दुर्लभ हो जायेगी। रामचन्द्रजी ने जोरदार शब्दों में उत्तर दिया कि हो जाये। एक सीता नहीं दस सीतायें दुर्लभ हो जायें, पर मैं अन्याय करने की आज्ञा नहीं दे सकता। रामचन्द्रजी में जो इतना विवेक था, उसका कारण क्या था? कारण था उनका सम्यग्दर्शन, विशुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन।
निर्दोष सीता जी को तीर्थयात्रा के बहाने कृतान्तवक्र सेनापति जंगल में छोड़ने गया । क्या उसका हृदय वैसा करना चाहता था? नहीं, वह तो स्वामी की परतंत्रता से गया था। उस वक्त कृतान्तवक्र को अपनी पराधीनता काफी खली।
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