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पंजे तो मेरी छाया को पड़ रहे हैं, मैं तो छाया से अलग वृक्ष के ऊपर सुरक्षित
बैठा हूँ। देखो! बंदर ने अज्ञान से छाया को ही अपना माना, इसलिये अपने प्राणों से हाथ धो बैठा।
इसी प्रकार इस जीव ने छाया के समान इस शरीर को अपना मान रखा है, अतः रोगादि होने पर या मृत्युरूपी सिंह के पंजे पड़ते ही मूर्ख बंदर के समान मूर्ख अज्ञानी जीव अपना ही मरण जानकर डरता है, भयभीत होता है कि हाय! मैं मर गया, हाय! मेरे शरीर में रोग हो गया।
लेकिन ये सब तो शरीर में हैं, तेरे में नहीं, तुम तो शरीर से भिन्न चैतन्य स्वरूपी आत्मा हो। आचार्य समझा रहे हैं-हे जीव! तू शरीर से भिन्न आत्मा को जानकर निर्भय हो जा। जब आत्मा का मरण ही नहीं, तो डर किस बात का? जो शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न जानते हैं, वे सदा निर्भय रहते हैं।
बहुत पुराने समय की बात है। जंगल में एक वृक्ष पर दो बंदर रहते थे। एक बंदर जवान था और दूसरा बूढ़ा। उस जंगल में एक भूखा सिंह शिकार की खोज कर रहा था। खोजते-खोजते वह उस वृक्ष के समीप आया। उसने वृक्ष के ऊपर दो बन्दरों को बैठे देखा, लेकिन वृक्ष के ऊपर तो सिंह पहुँच नहीं सकता था, फिर भी चालाक सिंह ने बन्दरों को पकड़ने की युक्ति खोज निकाली।
गर्मी के दिनों में दोपहरी में वृक्ष के ऊपर बैठे बंदरों की छाया नीचे पड़ रही थी। जब सिंह ने देखा कि वृद्ध बंदर छाया को ही अपनी मान रहा है, इसलिये सिंह ने बंदर की ओर देखकर जोरदार गर्जना की और उसकी छाया पर जोर से पंजा मारा । हाय! हाय! सिंह ने मुझे पकड़ लिया ऐसा समझकर मूर्ख बंदर भय से काँपते हुये नीचे गिर गया, तब सिंह ने उसे पंजे से पकड़ लिया, जिससे उसका मरण हो गया। उसी समय युवा बंदर वृक्ष के ऊपर निर्भय होकर बैठा रहा। वह वहाँ बैठा-बैठा सिंह की चेष्टायें देखता रहा। तब युवा बंदर ने विचार किया कि वह दूसरा बंदर नीचे गिरकर क्यों मर गया और मैं क्यों नहीं मरा? विचार करने पर उसे समझ में आया कि हाँ, ठीक ही तो है, वह वृद्ध बंदर नीचे की छाया को अपनी मान रहा था, इसलिये छाया पर सिंह के द्वारा पंजा मारते
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