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बड़ा मेला और हमारा छोटा-सा लड़का, कहाँ खोजें, समझ में नहीं आता। वह रोने लगी। तभी एक सहेली मिल गई और उसने पूछा कि क्यों बहिन! क्या हो गया? तब वह महिला कहती है कि क्या बताऊँ? छह बच्चे लायी थी, पाँच ही बचे है; एक बच्चा भीड़ में खो गया। तब वह सहेली गिनकर देखती है तो सारी बात समझ जाती है और पाँच बच्चों को गिनने के बाद वह महिला की गोद में सोये हुये बच्चे को थपथपाकर कहती है कि यह रहा छटवाँ लड़का। यही स्थिति सभी की है। जो अत्यंत निकट है अपना आत्म तत्व, उसे ही सब भूले हुये हैं। बाह्य भोग्य सामग्री को ही गिन रहे हैं कि हमारे पास इतनी कारें है, इतनी सम्पदा है। सुबह से शाम तक जो भी क्रियायें हो रही हैं। यदि हम जान लें कि सारी-की-सारी शरीर के द्वारा हो रही हैं और मैं केवल करने का भाव कर रहा हूँ, मैं पृथक हूँ, तो पर के प्रति उदासीनता आने में देर नहीं लगेगी, कठपुतली के खेल के समान सारा खेल समझ में आ जायेगा। शरीर आदि पर द्रव्यों के साथ जब तक उपयोग की डोर बंधी है, तब तक यह संसार का खेल चलता रहेगा और जैसे ही हमारे उपयोग की डोर पर पदार्थों से हट जायेगी, तो संसार का अंत आ जायेगा।
यह मोह ही है जो हमें अपने सत्य स्वरूप का बोध नहीं होने देता। मोह किसी को नहीं छोड़ता। भगवान् ऋषभदेव तो युग के महान पुरूष थे पर उन्होंने भी मोह के उदय में अपनी आयु के 83 लाख पूर्व बिता दिये। आखिर इन्द्र का इस ओर ध्यान गया कि 18 कोड़ा-कोड़ी सागर के बाद तो इन महापुरुष का जन्म हुआ और ये सामान्य जीवों की तरह संसार में फँस रहे हैं, स्त्रियों और पुत्रों के स्नेह में डूब रहे हैं, संसार के प्राणियों का कल्याण कैसे होगा? उसने यह सोचकर नीलांजना के नृत्य का आयोजन किया और उस निमित्त से भगवान् का मोह दूर हुआ। जब मोह दूर हुआ, तब ही उनका और उनके द्वारा अनंत संसारी प्राणियों का कल्याण हुआ। रामचन्द्र जी सीता के स्नेह में कितने भटके, लड़ाई लड़ी, अनेकों का संहार किया, पर जब मोह दूर हो गया तो स्वयं सीता के जीव प्रतीन्द्र ने कितने प्रयत्न किये, पर उन्हें तप से विचलित नहीं कर सकी। मोह ही संसार का कारण है, यह अटल श्रद्धान होना चाहिए।
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