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शुद्धस्वभाव का लक्ष्य बनाना है, उसके लिये बढ़ते चले जाना है।
यदि अपने आपको शुद्ध चैतन्य मात्र देखोगे, तो हमारी यह दृष्टि वह चिनगारी है जो कि विपदाओं के, कर्मों के पहाड़ों को जला सकती है। एक छोटी दृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, मगर वह इतनी चमत्कारिणी है कि सारे पहाड़ों को भस्म कर सकती है। और यदि एक आत्मा को नहीं पहचाना, तो संसार में ही रुलना पड़ेगा।
संसार तो स्वार्थ का होता है। वास्तव में जीव का यहाँ कोई भी अपना नहीं है। संसार में जीव के जीते हुये बनावटी प्रेमलीला चलती है। मरने के बाद कोई भी अपना नहीं है। मरने के बाद कोई भी उस प्रेम को नहीं रखता। पर को अपना मानकर उसमें राग-द्वेष करना ही संसार भ्रमण का कारण है। अतः पर से भिन्न अपनी चैतन्य स्वरूपी आत्मा को पहचान कर उसी में रत रहो।
जैसे तोता-मैना अपनी पक्षी की बोली छोडकर मनष्यों की बोली बोलने की क्रिया आरम्भ कर देते हैं तो मनष्यों के द्वारा स्व-मनोरंजन के लिये पिंजडे में डाल दिये जाते हैं। और यदि वे मनुष्यों की बोली बोलना बन्द कर दें, तो मनुष्यों के द्वारा पिंजड़े से बाहर निकाल दिये जाते हैं। इसी तरह संसारी जीव जब तक मन, वचन, काय आदि परपदार्थों को अपना मानकर उनसे ममत्व करता है, तब तक कर्मों के द्वारा बँधा संसाररूपी जेल में पड़ा परतंत्रता के दुःख उठाता है। किन्तु मन अलग है, मैं जीवात्मा अलग हूँ, वचन अलग हैं, मैं चैतन्य आत्मा अलग हूँ, ऐसा भेदविज्ञान ही मुझे संसार परिभ्रमण से छुड़ाकर मुक्ति की ओर ले जाने वाला है। 'समयसार जी' में आचार्य कुन्दकुन्द महराज ने लिखा है -
अहमिक्को रवलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदारूबी।
ण वि अस्थि मज्झ किंचिव, अण्णं परमाणुमितंपि।। निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, सदा अरुपी हूँ और अन्य जो परद्रव्य हैं, वे किंचित् मात्र/अणुमात्र भी मेरे नहीं हैं। ___ आत्मा और शरीर का संबन्ध दूध और पानी के समान है, जिसे तत्वज्ञान प्राप्त करके अलग किया जा सकता है। जो अन्तरात्मा रत्नत्रय के मार्ग पर चलता है, वह शरीर व आत्मा को अलग-अलग कर लेता है
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