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उनको शान्ति प्राप्त हुई । बाह्य पदार्थों में रहकर कोई भी सुखी नहीं रह सकता। जो सुख और शान्ति प्राप्त होगी, वह अपने आप में रम करके ही प्राप्त होगी। पूर्ण संयम को धारण करने वाले मुनिराज जब आत्मस्वरूप में रमण करते हैं, उस समय उन्हें जो सुख प्राप्त होता है, वैसा सुख इन्द्र, नागेन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि किसी को भी प्राप्त नहीं होता। इसे ही निश्चिय सम्यकचारित्र कहते हैं। __सच्चे आत्मिक सुख को प्राप्त करने के लिये इन परपदार्थों की आसक्ति छोड़कर अपने स्वरूप को पहचानो और शक्ति–अनुसार संयम को धारण करो। समय को आज तक कोई भी बाँध नही पाया, अतः समय का सदुपयोग करो। अपने स्वरूप को पहचानो और नियम, संयम को जीवन में धारण करो। हमें संयम धारण करने में ज्यादा विचार नहीं करना चाहिये।
एक व्यक्ति बहुत समझदार था। वह बहुत सोच-सोचकर कार्य करता था। एक बार वह फौज में शामिल हो गया। कर्नल ने सभी को आदेश दिया-बायें मुड़। सभी लोग तो मुड़ गये पर वह नही मुड़ा। वह वहीं सोचता खड़ा रहा। कर्नल उससे कहता है कि आप क्यों नहीं मुड़े? तो वह कहता है कि मैं मुड़ तो सकता था, पर सोच रहा था मुहूं या ना मुहूँ? मुड़ने से क्या फायदा है? तो कर्नल ने उसे फौज से निकाल दिया। जो व्यक्ति उसे लाया था, उसने उसे एक रसोइये का काम दिलवा दिया। मालिक उससे मटर छीलने के लिये कह गया, बोला कि बड़ी-बड़ी मटर इधर रख देना और छोटी-छोटी उधर रख देना। जब एक घंटे बाद मालिक वापिस आया, तो वह पूरी मटर रखे बैठा था, उसने एक भी मटर नहीं छीली । मालिक ने कहा-क्यों, अभी तक मटर नहीं छीली? तो वह बोला-मैं सोच रहा था कि छोटी मटर इधर रखूगा बड़ी मटर उधर रखूगा पर कुछ मंझली भी तो होंगी उन्हें कहाँ रखूगा? पहले पूरा निर्णय हो जाये उसके बाद ही शुरू करूँगा।
इसी प्रकार हम लोगों का पूरा जीवन केवल विचार करते-करते ही निकल जाता है। वृद्धावस्था आ जाने तक भी संयम को धारण नहीं कर पाते । आचार्य समझा रहे हैं कि जब तक शरीर स्वस्थ है, इन्द्रियाँ ठीक-ठीक काम कर रही
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