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में राजा का बगीचा था वे वहीं जाकर ठहर गये। बगीचे में दो कमरे थे, उनमें बढ़िया तखत पड़े हुये थे । एक कमरे में गुरुजी बैठे और दूसरे में शिष्य । गुरुजी ने शिष्य से कहा—बेटा! तुम कुछ बनना नहीं । शिष्य बोला हाँ, गुरुजी ! हम कुछ नहीं बनेंगे। शाम को राजा बगीचे में आये । राजा के सिपाहियों ने देखा दोनों कमरों में एक-एक आदमी बैठे हुये हैं। उन्होंने राजा को बताया तो राजा बोले- अच्छा, जाओ, उनसे पूछकर आओ कि वे कौन हैं ?
सिपाही शिष्य के पास गये और पूछा तुम कौन हो ? शिष्य बोला- देखते नहीं, मैं साधु हूँ। सिपाहियों ने राजा से कहा महाराज वह तो कह रहा है कि देखते नहीं, मैं साधु हूँ । राजा बोले- उसे कान पकड़कर बाहर निकाल दो । सिपाहियों ने उसे ठोका - पीटा और कान पकड़कर बाहर निकाल दिया। सिपाही दूसरे कमरे में गये और पूछा- तुम कौन हो ? गुरुजी मौन थे। सिपाही राजा से बोले- महाराज ! वे तो बोलते ही नहीं, आँखें बंद किये बैठे हैं। राजा बोले- उनसे कुछ नहीं कहना, वे कोई साधु महाराज होगें ।
राजा तो घूमकर चला गया। अब शिष्य गुरुजी से कहता है- महाराज ! आपने ऐसा ठहराया कि मेरी तो मरम्मत हो गई और कान पकड़कर बाहर निकाल दिया गया। गुरुजी बोले- तुम कुछ बने तो न थे ? शिष्य बोला- अरे महाराज! मैं कुछ नहीं बना था । सिपाही ने पूछा तुम कौन हो, तो मैंने कहाअरे, देखते नहीं, मैं साधु हूँ । गुरुजी बोले- यही तो तुम्हारा बनना हुआ। मैं सा
हूँ, मैं श्रावक हूँ, मैं अमुक हूँ, मैं तमुक हूँ- यह सब पर्यायबुद्धि ही संसार-भ्रमण का कारण है। अतः, पर्यायबुद्धि को छोड़कर अपने आत्मस्वरूप को पहचानो । श्री सहजानंद वर्णीजी ने लिखा है मोह को छोड़कर पर से भिन्न निज को पहचानकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करो। कितने ही भव गुजर गये, उन भवों में क्या-क्या मिला और उनमें कितना-कितना मोह किया होगा, राग किया होगा और आज कुछ नहीं है ना ? पूर्वभव की बात तो कोई सोच सकता है कि पूर्वभव में न किया जाता मोह, तो क्या बिगड़ता था मेरा ? अच्छा ही होता, आज के ये बुरे दिन तो न देखने होते कभी के मोक्ष पा लेते और इसी प्रकार इस जीवन में भी जो अब तक बातें गुजरीं हैं, उनमें प्रेम न करता, मोह न करता । सब
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