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एक श्रोता सभा में देर से आया तो पंडित जी ने पूछा-सेठ जी! तुम्हें देर क्यों हो गयी? सेठ जी बोले-पंडित जी! आज हम बड़े चक्कर में आ गये। वह मोड़ा है ना, 8-9 वर्ष का, ......... | हाँ, हाँ, सो क्या? ......... सो वह कहने लगा कि हम भी शास्त्रसभा में चलेंगे। उसे बहुत समझाया, आखिर उसे पिक्चर देखने भेजा, तब हम यहाँ आ पाये। .......... तो सेठ जी उस बच्चे को भी ले आते, क्या हर्ज था? ....... पंडित जी! आप बहुत भोले हो। हम तो हैं सुनने की सारी कला जानने वाले, कैसे सुना जाता है, किस कान से सुना जाता है, किस कान से निकाला जाता है, हम उस 9 वर्ष के मुन्ने को यहाँ शास्त्र सुनने लायें और आपकी कोई बात उसके घर कर जाये तो कहो वह घर को भी छोड़ दे, हम उससे भी हाथ धो बैठें। तो अज्ञानी जीवों को संवर की कारण ज्ञान-वैराग्य की बातें कष्ट देने वाली लगती हैं। ___मनुष्य जन्म की सार्थकता ज्ञान और वैराग्य से ही है। अतः ज्ञान और वैराग्य में अपने मन को लगाओ। परम उपकारी वैराग्य को एक घड़ी के लिये भी मत भूलो, क्योंकि सारा जगत वैराग्य के बिना संसार के कीचड़ में फँसा है। संसार-सागर से पार उतारने वाला एकमात्र ज्ञान-वैराग्य ही है। अनादिकाल से संसार में भटकते-भटकते आज यह दुर्लभ मनुष्य जन्म और जैनशासन मिला है, तो अब अपना कर्तव्य है कि ज्ञान और वैराग्य को अत्यन्त कल्याणकारी समझकर उसे जीवन में धारण करें और समस्त इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर रत्नत्रय के मार्ग पर चलकर मोक्ष के निराकुल सुख को प्राप्त करें। यह अज्ञानी प्राणी मोक्ष में भी आकुलता ही मानता है।
रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।
इच्छाओं को रोकना तप कहलाता है। इस तप से कर्मों की निर्जरा होती है। किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाव से आत्मा की अनन्त ज्ञानादिरूप शक्ति को भूल अपनी इच्छाओं का निरोध नहीं करता और निरन्तर पाँचों इन्द्रियों के विषयों में रमा रहता है। यह निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। आचार्य कहते हैं- यदि सुखी होना है तो अपनी इच्छाओं का निरोध करो। परन्तु यह अज्ञानी प्राणी पाँचों इन्द्रियों के विषयों की तृष्णा के कारण अपनी इच्छाओं
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