________________
वर्ष तक उसी में फंसा रहा। ये जितने भी बाह्य पदार्थ हैं, सब आसार हैं। इनमें हित का नाम भी नहीं है। यदि परपदार्थों से अपना हित मानते हो तो समझो की हम भ्रम में पड़कर उलटे मार्ग पर चल रहे हैं। अरे इन विषय-कषाय के मार्ग को छोड़ो और संयम, तप के मार्ग को अपना कर अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करो। जिन्होंने अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली वे मुनिराज ही वास्तव में सुखी हैं और एक दिन सम्पूर्ण इच्छाओं का अभाव करके परमात्मपद को प्राप्त करेंगे।
एक मुनिराज किसी जंगल में तपश्चरण करते थे। एक बार एक राजा वहाँ से गुजर रहा था। उसने उनकी निर्ग्रन्थ मुद्रा देखकर सोचा कि यह तो बहुत दरिद्र है, इसके पास एक लंगोटी तक नहीं है, अतः हमें इसकी कुछ सहायता करनी चाहिए। ऐसा विचार कर राजा ने अपने मंत्री को 100 स्वर्ण मुद्रायें उस दरिद्र साधु को देने को कहा। मंत्री ने साधु से जाकर कहा कि राजा ने ये मुद्रायें आपके लिए भेजी हैं, इसे लेकर आप अपनी दरिद्रता दूर कर लें। यह सुनकर मुनिराज कहते हैं कि इन्हें गाँव में बाँट दो। मंत्री राजा के पास पहुँचा और साध
का उत्तर बताया। राजा सोचते हैं कि शायद यह मुद्रायें कम हैं, इसलिए उस दरिद्र ने स्वीकार नहीं की। राजा ने कहा- 200 मुद्रायें भेजी जाएँ। इस तरह वह पुनः 200 मुद्रायें मंत्री के हाथ भेजता है, मंत्री साधु के पास जाता है और मुद्रायें स्वीकार करने के लिए कहता है। किन्तु इस बार भी उस साधु ने वही उत्तर दिया कि जाओ, इन्हें गरीबों में बाँट दो। मंत्री फिर राजा के पास जाकर कहता है कि उसने मुद्रायें स्वीकार नहीं की। अब राजा सोच में पड़ जाता है कि क्या कारण है कि यह मुद्रायें स्वीकार नहीं करता। वह सोचता है कि शायद मंत्री के हाथ से मुद्रायें लेना उसने अपना अपमान समझा हो, इस कारण मैं स्वयं ही वहाँ जाकर उन्हें ये दे आऊँ। इस प्रकार वह स्वयं 1000 मुद्रायें लेकर उन मुनिराज के पास पहुँचता है और कहता है कि ये स्वर्ण मुद्रायें ले लीजिये। मुनिराज ने फिर वही बात कही जाओ इन्हें गरीबों में बाँट दो। राजा बोलते हैं कि तुमसे गरीब मुझे और कौन मिलेगा ? मुनिराज उत्तर देते हैं कि तुम हमें नहीं जानते हो, हम श्रीमन्त हैं, हमारे पास अनन्त वैभव का भण्डार है, हम ऐसे
0 314