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व्यवहार बदलता नहीं है।
यही हालत हमारी आत्मा की हो रही है । यद्यपि वह अपना ही है, अपना ही क्या, अपन स्वयं आत्मा हैं, पर आत्मा में अपनापन नहीं होने से उसकी उपेक्षा हो रही है। वह अपने ही घर में नौकर बनकर रह गया है।
जब वह बच्चा अठारह वर्ष का हो गया, तब एक दिन इस बात का कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध हो गया कि वह लड़का उन्हीं सेठानी का लाड़ला बेटा है । तब वह रोती हुई बोली- हाय! मैंने अपने बेटे को कितना कष्ट दिया? अब उसका बच्चे के प्रति व्यवहार बदल गया । व्यवहार में इस परिवर्तन का एकमात्र कारण अपनेपन की पहिचान है, अपनेपन की भावना है। इसी प्रकार जब तक निज आत्मा में अपनापन स्थापित नहीं होगा, तब तक उसके प्रति अपनेपने का व्यवहार भी संभव नहीं है । देहादि परपदार्थों से भिन्न निज आत्मा में अपनापन होना ही सम्यग्दर्शन है। हम जानते तो हैं कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ, पर मानते नहीं हैं। जानना अलग बात है और मानना अलग बात है। जो अपने को शरीरादि पर पदार्थों से भिन्न आत्मा मान लेता है, वही सम्यग्दृष्टि है ।
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं
चेतन और अचेतन । चेतन पदार्थ वे हैं, जिनमें जानने की शक्ति है, अथवा जो सुख - दुःख का वेदन या अनुभव कर सकते हैं। इसके विपरीत, अचेतन या जड़ पदार्थ वे हैं, जिनमें जानने की, अनुभव करने की शक्ति नहीं है, जो सुख - दुःख का वेदन नहीं कर सकते । चेतन जाति के अन्तर्गत, पाँच इन्द्रियों वाले विशालकाय जीवों से लेकर एक इन्द्रिय वाले सूक्ष्म जीवों तक, समस्त संसारी जीव एवं मुक्त जीव आ जाते हैं। शेष सभी पदार्थ अचेतन जाति के अंतर्गत आते हैं। सभी प्रकार के जीवों में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान
है ।
जिस प्रकार स्वर्ण - पाषाण, अर्थात् खान से निकाला गया सोना हमेशा कंकड़-पत्थर, रेत-मिट्टी तथा किट्ट -कालिमा से संयुक्त अवस्था में ही पाया जाता है, उसी प्रकार जीव के साथ कर्म का अनादिकाल से संयोग चला आ रहा है। कर्मबन्धन के फलस्वरूप उसे बार-बार एक-के-बाद-एक शरीर का
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