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सुख मानता है और अशुभ कर्मों के फल से प्राप्त अनिष्ट संयोगों में दुःख मानता है। वास्तव में संसार में न कोई वस्तु इष्ट है न अनिष्ट। वस्तु तो वस्तुरूप है; अच्छा-बुरापना वस्तु में नहीं है, अपितु हमारे भीतर से आने वाला विकार है। जैसे कि पीलिया के रोगी को दूध पीला दिखाई देता है; वस्तुतः दूध पीला नहीं है, पीला दिखाई देना तो एक दृष्टिविकार है। इसी प्रकार, यदि वस्तु हमें अच्छी-बुरी लग रही है, तो यह हमारे भीतर का विकार है। अनुकूल में प्रीति व प्रतिकूल में अप्रीति से तुम संसार में फँस रहे हो। राग-द्वेष से भिन्न वीतराग परिणति जीव का स्वभाव है, उसी की प्राप्ति का पुरुषार्थ करो। जानो, देखो, बिगड़ो मत । अर्थात् पदार्थ के ज्ञाता-दृष्टा बनो, पर उसमें राग-द्वेष मत करो। 'इष्टोपदेश' ग्रंथ में आचार्य पूज्यपाद महराज ने लिखा है -
वध्यते मुच्यते जीव: निर्मम: सममो क्रमात्।
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ।।26 ।। परद्रव्य में 'यह मेरा है, यह रागबुद्धि ही बन्ध के लिये कारण है तथा परद्रव्य में 'यह मेरा नहीं है' ऐसी विरागबुद्धि ही मुक्ति के लिये कारण है, इसलिये सर्व प्रयत्न करके वीतरागता का आश्रय करो। शुभ बन्ध के फल से प्राप्त सामग्री में राग तथा अशुभ बन्ध के फल से प्राप्त सामग्री में द्वेष मत करो।
राग-द्वेष के अभाव का उपाय धर्ममार्ग है। राग-द्वेष का अभाव जितने अंशों में हो, उतना धर्म है और इनका पूर्णतया अभाव हो जाना ही धर्म की पूर्णता है। राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूलाधार जीव की यह अनादिकालीन मिथ्या मान्यता है कि "मैं शरीर हूँ।" यह जीव निज में चैतन्य होते ये भी, आप ही जाननेवाला होते हुये भी, स्वयं को चैतन्यरूप न जानकर शरीररूप जान रहा है। जब शरीर और स्वयं में एकपना देखता है तो शरीर से सम्बन्धित सभी चीजों में इसके अपनापना आ जाता है। शरीर के लिये अनुकूल सामग्री में राग होता है
और प्रतिकूल सामग्री में द्वेष । दुःख के मौलिक कारण राग-द्वेष, शरीर में अर्थात् 'पर' में अपनापन मानने से पैदा होते हैं और निज आत्मा को निजरूप अनुभव करने से मिटते हैं।
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