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वह कुंजड़ी बोली- अरे भैया! शादी कर दी तो बताओ- यहाँ कौन तो दुकान पर बैठेगा? और कौन शाकभाजी बेचेगा? मुझे नहीं खिलाना अच्छा खाना, नहीं पहिनाना अच्छा वस्त्र, बादशाह से नहीं करनी लड़की की शादी, चला जा।
__ वह मंत्री अपना-सा मुँह लेकर चला गया। बहुत से बड़े-बड़े पुरुष उसे समझाने के लिए गए। लेकिन उसने किसी की भी नहीं सुनी। अन्त में एक सिपाही ने कहा-हुजूर! आप आज्ञा दें तो मैं जाकर समझाऊँगा। मंत्री ने आज्ञा दे दी। वह सिपाही कुंजड़ी के पास जाकर बोला- तुम बादशाह से अपनी लड़की की शादी क्यों नहीं करती? क्या बात है? कुंजड़ी कहने लगी- अबे मुएँ! तू फिर समझाने आया है।
तब उस सिपाही ने उसकी चुटिया पकड़ कर खींच ली और इधर से उध पर चार बार घुमाया। जब ज्यादा वेदना हुई, तब बोली- अरे भाई! बता तो सही, त क्या चाहता है? सिपाही ने कहा-जो चाहता था, पहले कह दिया, अब और क्या कहलवाना चाहती है? आखिर हार मानकर बोली -अच्छा, कह दे बादशाह, से शादी मंजूर है। अब तो छोड़ दे।
दूसरे दिन बादशाह की उस लड़की से ठाठ से शादी हो गई। सत्य यही है कि स्ववश त्याग करना कोई नहीं चाहता, परवश त्याग कर देता है। लेकिन बुद्धिमान पुरुष वही है, जो स्ववश त्याग करके अपना कल्याण करते हैं।
परपदार्थ कितने ही काल तक रहें, पर एक दिन अवश्य जाने वाले हैं। चाहे हम उनका त्याग कर दें, अथवा हमें वे छोड़ दें या त्याग दें, उनका वियोग अवश्यंभावी है। संसारी जीव स्वयं उनका त्याग नहीं करते, यही बड़ा आश्चर्य है। जब ये पदार्थ स्वतन्त्रता से हमारा त्याग करते हैं, तब हमें बड़ा असन्तोष होता है, परन्तु यदि स्वेच्छा से उनका त्याग कर दिया जाए तो हमें अनन्त सुख की प्राप्ति होती है।
ज्ञानी और अज्ञानी में यही अन्तर है। ज्ञानी स्वयं का कर्ता और अज्ञानी पर का कर्ता बनता है। अज्ञानी भी अपने ज्ञान का ही कर्ता है। लेकिन मान्यता को क्या करें?
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