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अपने चैतन्य स्वरूप को पहचाने बिना शरीर में अपनापना नहीं मिट सकता, शरीर में अपनापना मिटे बिना राग-द्वेष नहीं मिट सकते और राग-द्वेष मिटे बिना यह जीव कभी सुखी नहीं हो सकता। इस जीव को एक ही रोग है, "राग और द्वेष" और दवा भी एक ही है कि शरीर और कर्मफल से भिन्न अपने को चैतन्यरूप अनुभव करना, जिससे राग-द्वेष का अभाव हो। लोक में भी देखा जाता है कि जिन लोगों को अथवा जिन चीजों को हम अपनी नहीं देखते-जानते हैं, उनके लाभ-हानि, जीवन-मरण को जानने पर भी हमें कोई सुख- दुःख नहीं होता। वहाँ चूंकि हमें अपनी चीज की पहचान है, अतः वे पर-रूप दिखाई देती हैं, अपनी नहीं। इसी प्रकार, यदि शरीरादि से भिन्न निज-आत्मा का ज्ञान हमें उसी ढंग का हो जाता तो शरीरादि भी पर-रूप दिखाई देने लगेंगे, तब उनमें भी सुख-दुःख, राग-द्वेष नहीं होगा।
राग-द्वेष का अभाव ही वास्तविक सुख है। रागादि स्पष्ट रूप से दुःख के ही कारण हैं। यह बात प्रत्यक्ष देखने में आती है कि जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की अधिकता रहती है वह स्वयं भी दुःखी रहता है और दूसरे लोगों को भी अच्छा नहीं लगता। जिस किसी व्यक्ति में राग-द्वेष की कुछ कमी हो जाती है, उसे हम भला आदमी कहते हैं। वह गलत काम नहीं करता है और दूसरों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होता है। जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की कमी और भी ज्यादा हो जाती है, वह साधु कहलाता है। उसका जीवन फूल की तरह होता है, जो न केवल स्वयं सुगन्धित होता है, अपितु दूसरों को भी सुगन्धित कर देता है। और जिस आत्मा में राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है उसकी शान्ति, उसका आनन्द समस्त सीमायें तोड़कर अपरिमित-अनन्त हो जाता है; वह आत्मा अपनी स्वाभाविक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा हो जाता है।
जब तक बर्तन को साफ नहीं किया जाये, तब तक उसमें भोजन नहीं परोसा जा सकता, नहीं तो भोजन खराब हो जायेगा। उसी प्रकार जब तक मिथ्यात्व व मोह दूर नहीं होगा, तब तक धर्म का अमृत (सम्यग्दर्शन आदि रत्न) नहीं परोसा जा सकता। मोह के कारण यह जीव पर को अपना मानता है, पर आचार्य समझाते हुये कहते हैं-तन से जिसका ऐक्य नहीं, सुत-तिय मित्रों से हो
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