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फिर ये संसार में ही तुम्हें पटक देंगे।
पंचेन्द्रिय विषयों में सुख नहीं है। जो सुख एक बार प्राप्त हो जाने के उपरान्त कभी न छूटे, वह स्थायी सुख है। यह इन्द्रियों से रहित आत्मा के द्वारा उत्पन्न होता है। इस सुख को ही परम् सुख या अतीन्द्रिय आनन्द कहते हैं।
अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु। पर सुहु वढ चिंतंताहँ हियइ ण फिट्टइ सोसु । |154 ||
(परमात्मप्रकाश) जो परद्रव्य से रहित आत्माधीन सुख है, उसी में जीव को संतोष करना चाहिए। इन्द्रियाधीन सुख का चिन्तन करने वालों के चित्त का ताप (दाह) नहीं मिटता। दूसरे शब्दों में कहे तो आत्माधीन सुख आत्मा के जानने से उत्पन्न होता है, इसलिये हे भव्य! तू आत्मा के अनुभव से सन्तोष कर ले। भोगों की इच्छा करने से चित्त शान्त नहीं होता। जो आत्मा की प्रीति करता है, वह स्वाधीन हो जाता है और जो भोगों का अनरागी है, वह पराधीनता को प्राप्त होता है। भोगों के भोगने से कभी भी तृप्ति नहीं होती। अनादिकाल से तू भोगों को भोगता आ रहा है, क्या तू आज तृप्त हो गया? नहीं, बिलकुल नहीं। तब मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि बाह्य पदार्थों का अवलम्बन छोड़कर, अपने आत्मा में तल्लीन होकर शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार आत्माराम का अनुभव करो। इन्द्रियभोग आस्रव-बन्ध के कारण हैं और योग निर्जरा का कारण है।
भोगी बन कर भोग भोगना, भव-बन्धन का हेतु रहा। योगी बन कर योग साधना, भव सागर का सेतु रहा।
जैसा तुम बोओगे, वैसा बीज फलेगा अहो! सखे। कटुक निम्ब पर सरस आम्रफल, कभी लगे क्या अहो सखे?
अगर भोगों में लिप्त रहोगे, तो संसाररूपी बन्धन बंधता चला जायेगा। भोगों को छोड़कर योग की ओर बढ़ोगे तो संसार बन्धन छूटता चला जायेगा। जैसे तुम आम का बीज बोओगे तो आम लगेगा और नीम का बीज बोओगे तो निम्बोली ही आयेगी। जब जीव शुद्धतत्त्व को विचारते हैं, ध्याते हैं, तब भोग से उदास हो जाते
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