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दृढ़ आलम्बन लो। आचार्य महाराज निकटभव्य जीवों को प्रतिबोधते हैं कि जिनेन्द्रोपदेश का लाभ होने पर मोह, राग-द्वोष का क्षय शीघ्र कर दोगे तो सर्व दुःखों से छुटकारा पा लोगे। योग्य शिष्य भी आत्मा का यथार्थ रहस्य जानकर प्रतिज्ञाबद्ध संकल्पित होता है कि मैं सर्व अभ्यास से मोह, राग-द्वेष के क्षय के लिये इस ही समय से आत्मिक पुरुषार्थ का आलम्बन लेता हूँ।
यदि यह जीव उद्यमपूर्वक अपने जीवन को संयमित करके रागादि भावों को रोककर समता में (ज्ञाता–दृष्टा भाव में) स्थित रहने का अभ्यास करे, तो तत्फलस्वरूप संवर व निर्जरा के कारण धीरे-धीरे उसके कर्मों का भार हल्का होता चला जाये और कुछ काल में ही कर्मों का पूर्णरूप से उन्मूलन हो जाने पर परम शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाये ।
कोई मुसाफिर कहीं जा रहा था। जंगल में आकर रास्ता भूल गया और रात्रि भी हो गई। यहाँ-वहाँ भटकता है, किन्तु रास्ता नहीं मिलता है। इतने में विवेक से सोचता है कि अगर मैं और चला गया, तो कहाँ का कहाँ पहुँच जाऊँगा, और फिर दिन भर भी रास्ता मिलने में समाप्त हो जाये। इसलिये अब कहीं न जाकर यहीं बैठना चाहिये। इतने में बिजली चमकती है तो सड़क दूर चमकती हुई दिख जाती है। बिजली का कितना-सा प्रकाश, लेकिन दिख गया सब । फिर भी सड़क तक जाना दुर्गम है, चल सकते नहीं, फिर भी हिम्मत आ गई कि अब मैं सवेरा होते ही अपने गन्तव्य स्थान को चल दूंगा। रात्रि है, तब-तक वहाँ पड़ा है। सवेरा होते ही ऐसी पगडंडी से चला जो सड़क तक जुड़ सकती है। रास्ते में झाड़ियाँ, कांटे, गड्ढे, टीले आदि अनेक थे, उन सबसे बचता हुआ चला। सड़क जैसे-जैसे पास आती जाती है, उसे प्रसन्नता बढ़ती जाती है। सड़क पर पहुँच गया तो वहाँ बड़े आराम से विहार कर रहा है। पहले-जैसे विकल्प अब न रहे। चलते-चलते अपने लक्ष्यस्थान के समीप पहुँच गया, वहाँ आराम से बैठता है।
इसी प्रकार जीव मिथ्यात्वरूपी भूली हुई गहन झाड़ी में पड़ा है। वहाँ भाग्योदय से कदाचित् भेदज्ञानरूपी बिजली का उजाला चमका, तब रास्ते की सही प्रतीति हुई। संसार में कुछ नहीं मिला। सांसारिक विकल्पों में कुछ भी सार
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