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हलचल मच गयी कि आचार्य महाराज के आहार नहीं हुए हैं। दो दिन निकल गए। बच्चे-बच्चे कह रहे हैं- महाराज ! विधि क्या है ? महाराज क्या बतायें ? विधि
नहीं है, सो विधि कैसे बताई जा सकती है? तीन दिन निकल गये। अब तो लोगों को तड़फड़ाहट हो गई। जब पड़गाहन का समय आया, सड़क पर भीड़ नजर आई, पर मुनिराज चक्कर लगाकर मंदिर में बैठ गये । सातवाँ दिन था। लोग तड़प रहे थे कि प्रभु ! अब क्या होगा, कि ये मुनिराज सात दिन से घूम रहे हैं। धरती के देवता, चलते-फिरते सिद्ध परमेश्वर मेरे द्वार से निकल रहे हैं, पर मैं उनके हाथ पर ग्रास नहीं रख पा रहा हूँ। सात दिन से विधि मिली नहीं । आज विधि क्या कह रही है? सेठ जी कहते हैं सेठानी से इतने दिन हो गये, बिल्कुल विवेक नहीं लगा रही हो, महाराज की विधि बना लो। उधर महाराज जी धीरे से निकल गये । सेठानी मणियों का हार पहने थी । जब महाराज मुड़ने लगे, तब सेठानी ने यह लोटा उठाया, वह लोटा उठाया और यूँ ही एकदम से हार को झटका लगा, जिससे हार के मोती जमीन पर बिखर गये और मुनिराज आकर खड़े हो गये। विधि होती है तो विधि मिल जाती है। वीतरागी मुनिराज बारह प्रकार के तपों के माध्यम से कर्मों की निर्जरा करते हैं ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है - सम्यग्दृष्टि विषय-भोगों को विषतुल्य मानता है । विषय-भोगों को ठुकरा दिया जाता है, तब कहीं यह निर्जरा तत्त्व आता है । भोगों की तो बात तक करना निर्जरा तत्त्व के लिये अभिशाप है, वहाँ भोग करना तो बहुत दूर की बात है । कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं कि तुम्हारी दृष्टि में भोग आ रहे हैं, तो अभी तक तुमने नहीं पहचाना है इस तत्त्व को। एकमात्र अपनी आत्मा में रम जा तू, वही मात्र निर्जरा तत्त्व है, एकमात्र आत्मा में घुसता चला जा तू यही निर्जरा तत्त्व है। तेरी ज्ञानधारा यदि ज्ञेयतत्त्व में लटकती है, अटकती है, तो ध्यान रखना, तेरा निर्जरा तत्त्व टूट गया। इस निर्जरा तत्त्व के उपरान्त और कोई पुरुषार्थ नहीं रह जाता है। तत्त्व अन्तिम नहीं है, वह तो फल है। मोक्ष, मार्ग नहीं हैं, मार्ग जो कोई भी है, वह संवर और निर्जरा है ।
आचार्य समझाते हैं-अरे! मिथ्यात्व - तिमिर के कारण वस्तुस्वरूप को न
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