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भावनाओं का चिन्तन करेंगे तभी दशलक्षण धर्म उत्तम बन सकते हैं। बारह भावनाओं का चिंतन करने के लिए योग्य परीषह कैसे सहन करें, तो हमारे आचार्य कहते हैं कि बिना चारित्र लिये बाईस परीषह सहन करना सही कोटि में नहीं आयेगा।
अर्थात् गुप्ति को समीचीन बनाने के लिये समिति, समिति को समीचीन बनाने के लिये धर्म और धर्म को सुरक्षित रखने के लिये अनुप्रेक्षा और अनुप्रेक्षा को समीचीन बनाने के लिये बाईस परीषह और बाईस परीषह बिना चारित्र को धारण किये नहीं हो सकते । आस्रव और बन्ध जो हो रहे हैं, वह हमारी कमजोरी है। उस ओर हम देखते हैं तो पुनः पुनः नया आस्रव और बन्ध होता चला जाता है और यदि हम उस ओर नहीं देखेंगे तथा अपने संवर रूपी पुरुषार्थ में लगे रहेंगे, तो कर्म उदय में आकर यूँ ही चले जायेंगे। अतः यदि हम संवर तत्त्व को ठीक-ठीक अपनाना चाहते हैं तो हमें उसके लिये “सगुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषह जय चारित्रैः" "रूपी हार पहनना चाहिये।
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