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ध्यान रखना, भावपूर्ण क्रिया ही फलदायी होती है। आचार्य पुष्पदन्त सागर जी महाराज ने लिखा है -
काम क्रोध अरू लोभ का बंद करो व्यापार | संवर का आदर करो, कर संयम से प्यार ।। जिनमुद्रा को धार लो, यही तत्त्व का सार।
आत्म-ध्यान में लीन हो, पाओ निज का सार ।। कहीं किसी नगर में मेले का आयोजन था। काफी लोग उस ओर जा रहे थे। आबालवृद्ध सभी भागे जा रहे थे। सब में उत्साह था, उमंग थी। भले ही धर्म के प्रति न हो, लेकिन भौतिकता के प्रति तो है ही। एक व्यक्ति अचानक कुएँ में गिर पड़ा है और वह चिल्ला रहा है- मुझे बचाओ, मुझे कुँए से बाहर निकालो, मैं डूब रहा हूँ। वह किसी भी प्रकार से कुँए में लटका हुआ था। कुएँ की दीवारों में छोटे-छोटे पेड़ उग आये थे, उन्हें पकड़ कर वह लटका हुआ था। शहर के बीच में कुँआ था। हो-हल्ला और शोर-गुल बहुत था। मेले की भीड़ थी। सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। ऐसे में कौन किसकी सुनता है। सबका अपना-अपना स्वार्थ है। उसकी आवाज किसी ने नहीं सुनी। एक बौद्ध भिक्षु वहाँ से गुजर रहा था, उसके कानों में आवाज पड़ी। उसने जाकर कुँए में झांका, नीचे देखा कि एक आदमी पेड़ पकड़े लटक रहा है, साथ ही तड़प रहा है। वह चिल्लाया, "मुझे बाहर निकालो, मैं मरा जा रहा हूँ। शीघ्र कोई उपाय करो। अब मेरे हाथ छूटे जा रहे हैं।' उस बौद्ध भिक्षु ने कहा-क्यों परेशान हो व्यर्थ में निकलने के लिए? बुद्ध ने कहा है कि संसार दुःखमय है। यहाँ दुःख-ही-दुःख है। सांसारिक जीवन दुःखमय है, बाहर निकल कर क्या करोगे? क्यों मुझे परेशान करते हो और तुम भी परेशान होते हो। बाहर आओगे तो परेशानी में फँस जाओगे। पुलिस परेशान करेगी। व्यर्थ में लोग सवाल करेंगे कि क्यों गिर गये, कैसे गिर गये, क्या तुम्हें इतना बड़ा कुँआ दिखाई नहीं पड़ा? इसके पहले भी बहुत से लोग गिर चुके हैं। वो भी बाहर नहीं निकले हैं और तुम क्यों व्यर्थ में निकलने का प्रयास करते हो? अब फालतू में चिल्लाना मत । इतना उपदेश देकर भिक्षु वहाँ से चला गया।
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