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अपनाते हैं तो भला बतलाओ इस मोह से लाभ मिलता है क्या ? कदाचित् घर गृहस्थी के बीच रहना पड़ता है तो रहो, उनमें राग करना पड़ता है तो करो, मगर मोह तो न रखो। आप गृहस्थी के बीच रहेंगे तो आपको दुकान या नौकरी भी करनी होगी, सब प्रकार के काम धन्धे भी करने होंगे, सब के साथ अनुराग भी करना होगा, तो ठीक है, करो, मगर मोह तो न रखो। जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही मानो। __मोह के कारण किसी का चित्त शरीर में है, किसी का चित्त स्त्री-पुत्र में है, किसी का चित्त घर में है, किसी का चित्त किसी ओर लगा है। यदि इन परपदार्थों से चित्त हटाकर अपने चैतन्य स्वरूप आत्मा की ओर लगायें तो इसमें मेरा हित है और यदि ऐसा नहीं कर सके तो इसमें मेरा घात है। मुझे अपने आपको ही बचाना है, अपने को सुरक्षित करना है, भविष्य की यात्रा का मुझे ध्यान रखना है। मेरी भविष्य की यात्रा भली हो। यदि हम इन बाहय वस्तुओं का ही ध्यान बनाये रहे, तो ऐसे ही समय गुजर जायेगा जैसा अभी तक गुजर गया। लोग भ्रमवश बाह्य वस्तुओं में बढ़-बढ़कर अपने में शूरता का अनुभव करते हैं, मगर यह केवल मेरे पर कलंक है। प्रभु की शान्त मुद्रा देखो जिसमें राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, विकल्प, विचार कुछ भी नहीं है। उन्हें कोई आकांक्षा नहीं है, मगर तीनलोक के त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ उनके ज्ञान में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। मेरा भी स्वभाव ऐसा ही है जैसा प्रभु का । जैसा प्रभु ने किया, वैसा मैं भी कर सकता हूँ। और जैसे प्रभु हुये, वैसा मैं भी हो सकता हूँ| इस जीवन में केवल एक ही प्रोग्राम बनायें कि मुझे तो शुद्ध होना है, सिद्ध होना है।
स्वाध्याय तो इसी का नाम है कि जो वचन बोलें, जो वचन सुनें, जो वचन पढ़ें, वे अपने पर घटित होते रहें, अपने पर घटा-घटाकर सुनें, अपने पर घटा-घटाकर बोलें, अपने आपसे उसका सम्बन्ध लगावें, कि यह बात मेरे में घटती है या नहीं, यह सभी मेरे में हैं या नहीं, ऐसी शक्ति मुझमें है या नहीं, यह मेरा स्वरूप है या नहीं। देखो, दो ही काम करना हैं- अपने में होने वाली कषायों से तो हटना है और अपने वास्तविक स्वरूप में लगना है। विभाव से हटना और
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