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विषयानुराग में प्रवृत्त होता है, मात्र मन में राग करता है, तो उसी समय बन्ध को उपलब्ध हो जाता है। वस्तु की प्राप्ति के पूर्व जो राग किया, उससे तो बन्ध हो गया, यदि वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तो उसके भोगने में जो आसक्ति का भाव है, उससे अब निरन्तर बन्ध चलता रहेगा, क्योंकि वस्तु का भोग निरन्तर चालू है। कभी वस्तु की अनुपलब्धि में जीव मात्र राग करके रह जाता है, उसके बाद विस्मृत हो जाता है। तो मात्र उसी समय बन्ध होता है। लेकिन वस्तु की प्राप्ति के बाद तो निरन्तर बन्ध होता रहता है। इसलिये तो आगम में बहिरंग वस्तु के त्याग पर विशेष बल दिया गया है। प्रवचनसार के चारित्र अधिकार की गाथा 231 में लिखा है-जो राग से, बन्ध से बचना चाहता है, उसे भौतिक वस्तु का, बहिरंग परिग्रह का त्याग करना अनिवार्य है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘समयसार' ग्रन्थ में कहा है -
वत्थु पडुच्च जं पुण, अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं।
ण य वत्थुदो दु बन्धो, अज्झवसाणेण बन्धोत्थि।। जीव के रागादिरूप भाव बाह्य वस्तु के निमित्त को लेकर होते हैं, वही भाव ही बन्ध का कारण है, किन्तु वह वस्तु बन्ध का कारण नहीं है। जीव का
और परिग्रह का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। यदि ज्ञेय पदार्थ नहीं होते, तो जीव के अन्दर विकार भी पैदा नहीं होते। जिन पदार्थों को, जिस परिग्रह को बुद्धिपूर्वक ग्रहण किया है, उसे बुद्धिपूर्वक ही छोड़ना होगा। अपने आप नहीं छूटेगा। पदार्थों में राग-द्वेष करने से कर्मों का बन्ध होता रहता है।
महिलाओं को रंगीन वस्त्रों से बहुत स्नेह होता है, प्रेम होता है, लगाव होता है। ‘यह साड़ी अच्छी है', राग का समर्थन हो गया। यह पहनने में बिल्कुल ही नहीं खिलती, मैं इसे पहनती भी नहीं हूँ, इसलिए नौकरानी को दिये देती हूँ, यह हुआ द्वेष का संवर्धन और यह साड़ी बहुत अच्छी है, संभाल कर पेटी में रख ली, स्वयं के पहनने को भी बाहर नहीं निकाली, मात्र कभी-कभी पेटी खोलकर साड़ी को देख लिया और पुनः पेटी में रख दिया, तो यह हुआ मोह का संवर्धन । राग, द्वेष और मोह इन तीनों के कारण जीव कर्म-वर्गणा को आमंत्रित करता है और स्वयं बन्धन में बंध जाता है। कर्म आमंत्रित कैसे होते हैं, यूँ समझने की
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